फिल्म समीक्षा: कोशिश

प्यार मनुष्य को ईश्वर के द्वारा दिया हुआ एक अनूठा वरदान है. कई बार व्यस्तता के कारण हम दिल की बात अपने प्रियजन को नहीं बोल पाते और ऐसा भी होता है कि हम प्रियजनों की बातें अनसुनी कर देते हैं. इसकी वजह से रिश्तों में खटास आ जाती है. गुलज़ार द्वारा निर्देशित यह सिनेमा – कोशिश – आपको परिचित कराएगी एक ऐसी कहानी से जो प्रेम के इस अनुभव को एक अलग ही नायाब ढंग से दर्शाती है.

जया भादुड़ी बच्चन और संजीव कुमार की यह फिल्म कहानी है आरती और हरी चरण माथुर के अद्भुत रिश्ते की. गुलज़ार के संवादों में पिरोई इस कहानी में आप देखेंगे आरती और हरी चरण के बीच के सहज प्रेम को जिसे संवादों की चाशनी ने नहीं बल्कि भावो की सरलता ने मजबूत किया है. आरती (जया भादुड़ी बच्चन) बचपन में हुए बुखार के बाद से मूक-बधिर है. वह अपनी मां दुर्गा (दीना पाठक) और निकम्मे भाई कन्नू (असरानी) के साथ मुंबई के पास बसे किसी कस्बे में रहती है. कुछ मवाली लड़को से बचते हुए आरती की टक्कर साइकिल से आ रहे हरी चरण से हो जाती है, जो आरती के जैसे ही मूक-बधिर है.

हरी चरण फिर आरती को उसके घर छोड़कर आता है, और उसकी मां को उसे आगे पढ़ाने के लिए प्रोत्साहित करता है.

1971-72 युद्ध के दो महीने बाद आए इस सिनेमा के जरिये गुलज़ार ने भारत-पाकिस्तान के मूक-बधिर रिश्ते पर कटाक्ष किया है, क्योंकि दोनों ही देश आपस में शांति से वार्तालाप करने में असफल रहे. साथ-साथ यह सिनेमा 1971 की आर्थिक तंगी से गुजर रहे भारतवासियों को प्रेरणा देते तीन शारीरिक असक्षम लोग आरती-हरी चरण (मूक-बधिर) और नारायण (नेत्रहीन) से परिचित कराता है, जो हर कठिनाई का सामना धैर्य और परिश्रम से करते हैं.

क्या आरती और हरी चरण अपने बच्चे का सही से पालन पोषण कर पाएंगे? क्या उनका बेटा मूक-बधिर को निषिद्ध देखने वाली रूढ़िवादी सोच को मिटा पाएगा, इन सब सवालों का जवाब जानने के लिए देखिए ‘कोशिश’.

इस सिनेमा में गुलज़ार ने बड़ी शालीनता से मूक बधिर के दैनिक जीवन में आने वाली परेशानियों को प्रस्तुत किया है. ‘कोशिश’ आपको सिखाएगा सामाजिक व वैवाहिक जीवन में आने वाली हर कठिनाई का सामना करने का मूल मंत्र, धैर्य  के साथ कोशिश करते रहना.


भारत बोलेगा: जानकारी भी, समझदारी भी