फिल्म समीक्षा: तमस

अपार अभिनय क्षमता वाले ओम पुरी अब हमारे बीच नहीं रहे. जहां इस घटना से अभिनय छेत्र में एक खालीपन आ गया है वहीं एक सवाल भी उमड़ रहा है कि क्या मृतावस्था के बाद भी अभिनेता का अंत होता है?  शायद बेबाक शख्शियत और दमदार आवाज़ के बादशाह ओम पुरी अपने अमर अभिनय के ज़रिये दर्शकों को कभी भी उस  खालीपन के तमस को महसूस नहीं करने देंगे.

1988 में गोविन्द निहलानी द्वारा निर्देशित ‘तमस’ भी असीम अंधकार के बीच में कुछ ऐसे ही उज्वलता की बात करता है जिसके कारण मानवता आज भी बरकरार है. ओम पुरी, दीप्ति शाह, दीना पाठक, भीष्म साहनी, अमरीश पुरी, नफ़ीसा अली, ए. के. हंगल अभिनीत यह सिनेमा बटवारे के समय हिन्दू-मुस्लिम दंगों के बीच पनप रही कहानियों से आपको रूबरू कराता है.

भीष्म साहनी  के उपन्यास पर आधारित यह सिनेमा  शुरू होता है एक छोटी सी घटना से जिसमें ठेकेदार (पंकज कपूर), नत्थू (ओम पुरी) को सूअर मारने के लिए कहता है, जिसे करने के लिए नत्थू बड़ी ज़दोजहद के बाद मान जाता है. इस घटना का दुरूपयोग ठेकेदार कुछ इस प्रकार करता है कि पूरे शहर में दंगे भड़क जाते हैं जिसे कुछ नेता और धर्म प्रचारक भुनाते हैं.

वी. के. मूर्ति के छायांकन से पिरोया हुआ यह सिनेमा आपको दंगों से प्रताड़ित हर धर्म, वर्ग, और उम्र के परिवार से रूबरू कराएगा. इनमें से कुछ हैं हरनाम सिंह (भीष्म साहनी) और बंतो (दीना पाठक) का परिवार जो बुढ़ापे में अपना गांव और दुकान छोड़ कर मुस्लिम परिवार में आसरा लेते हैं, या अपने आप को दंगों का अपराधी समझ रहे नत्थू का  परिवार जो अपनी गर्भवती पत्त्नी कर्मो और वृद्ध मां के साथ दंगों से दूर चलते जाने में विश्वास रखता है.

इस सिनेमा में जहां एहसान अली के बेटे द्वारा हरनाम सिंह को मारते- मारते एक दम रुक जाने वाला दृश्य आपको भावुक करेगा वहीं नत्थू द्वारा सूअर को पकड़ने वाला दृश्य एवं वृद्ध मां को कंधे पर लेकर चलते जाने वाला दृश्य आपको झंझोर के रख देगा.


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