खुद की खोज में खुद को न खो दें

अक्सर जब हम कोई यात्रा वृतांत पढ़ते हैं तो उस जगह की ख़ूबसूरती, वहां पहुंचने के साधन इत्यादि का ज़िक्र पाते हैं. ऐसा शायद ही कभी संभव हो पाता है कि किसी जगह पहुंचे बिना ही उसकी ख़ूबसूरती को शब्दों में पिरो पाएं.

यह थोड़ा अटपटा है या यूं कहें कि दुर्भाग्यपूर्ण है कि सांस्कृतिक रूप से हमें ऐसे तैयार किया गया है कि किसी रहस्य पर या रहस्मयी बातों पर हम हमेशा बेहतर प्रतिक्रिया देना चाहते हैं. हम यह भी समझते हैं कि हर अनसुलझे तो सुलझाने में हम सक्षम हैं. साथ ही, हम जो देखते हैं व जानते हैं, उसे सरलता से भूल भी जाते हैं.

नंदा देवी पर्वत को ही ले लीजिए. इसे अक्सर भारत के दूसरे सबसे ऊंचे पहाड़ के रूप में वर्णित किया जाता है, या उस पर्वत के रूप में इसका उदाहरण दिया जाता है जहां एक संयुक्त इंडो-अमेरिकन अभियान के दौरान परमाणु ऊर्जा से संबंधित कोई उपकरण खो गया था, जिस पर भी बहुत विवाद हुआ और वह रहस्य ही बना रहा.

ये दोनों ही परिभाषाएं – चाहे नंदा देवी पर्वत की ऊंचाई या वहां ख़ुफ़िया भारतीय-अमेरिकी अभियान – आज के युग में अपने दृष्टिकोण का विस्तार लगती हैं, जहां सफलता को हमेशा ऊपर की ओर मापा जाता है और अनिवार्य रूप से अपूर्ण इच्छाओं को कल्पना का रूप देकर उन्हें भुलाने की पुरजोर कोशिश होती है.

एक साहब कहते हैं उन्होंने वास्तव में नंदा देवी के बेस कैंप को नहीं देखा है, इसलिए वे इसे आधा अधूरा ही परिभाषित कर सकते हैं. और यह भी सच है कि उन्होंने नंदा देवी पर्वत को दूरी से कई बार देखा है और इसके सबसे नज़दीक वे सिर्फ कुछ पंद्रह किलोमीटर तक ही जा पाए. लेकिन, दिलचस्प यह है कि इन सबके बावजूद उन्होंने ऐसी अवधारणा को गले लगा लिया है कि वे इस पर्वत को समझने में सक्षम हैं जबकि वे इसे पूरी तरह जानते ही नहीं.

क्या आप भी मानते हैं कि पहाड़ों को एनलाइटेंनमेंट यानी प्रबुद्धता और एस्केपिज्म यानी पलायनवाद – दोनों के लिए ही एक आदर्श पथ के रूप में देखा जाता है? यह मुख्यतः इसलिए होता है क्योंकि पहाड़ों और उनके भूगोल को पश्चिमी कल्पनाशील नज़रिये से देखा जाता है, जहां ये माना जाता है कि वे किसी न किसी अंत का ज़रिया हैं.

पर उन्नीसवीं शताब्दी तक ऐसा नहीं था. हमारे पहाड़ ऐसे स्थान नहीं थे जहां कोई खुद की खोज में जाए. परंतु तब भी पर्वतों को उन स्थानों के रूप में देखा जाता था जहां कुछ ही क्षणों में कोई भी खुद को खो दे. देश में ऐसी धारणा थी कि पर्वत वह पवित्र स्थान होते थे जहां देवी-देवता और राक्षस रहा करते थे. ज्यादातर क्षेत्रीय भाषाओं में ढूंढने से भी माउंटेन समिट यानी पर्वत शिखर जैसे शब्द नहीं मिलेंगे.

नंदा देवी चोटी तो चारों ओर से पर्वतीय दीवारों से घिरी है. एक तरह से कहा जाए तो नंदा देवी ही हिमालय पर्वत श्रृंखला का केंद्र है. यही कारण है कि इस शिखर पर जाने के इच्छुक पर्वतारोहियों को वहां पहुंचने का सही मार्ग नहीं मिल पाया था.

कई लोगों के लिए नंदा देवी अपने कठिन बेस के लिए श्रद्धेय है. कुछ लोककथाओं में नंदा देवी को हिमालय की पुत्री भी कहा जाता है. एक साक्षात्कार के दौरान हिमालय पर फतह करने वाले शेरपा तेनजिंग ने कहा था कि हिमालय की तुलना में नंदा शिखर पर चढ़ना ज्यादा कठिन है. यही वजह है कि नंदा देवी को अक्सर हिमालय की सबसे बड़ी पहेली के रूप में देखा गया है.


नंदा देवी पर्वत भारत का दूसरा एवं विश्व का 23 वां सबसे ऊंचा पहाड़ है. इसके चोटी से ऊंची व देश में सर्वोच्च चोटी कंचनजंघा है. नंदा देवी शिखर हिमालय पर्वत श्रृंखला में उत्तराखंड राज्य में पूर्व में गौरीगंगा तथा पश्चिम में ऋषिगंगा घाटियों के बीच स्थित है. इस चोटी को उत्तराखंड में मुख्य देवी के रूप में पूजा जाता है.


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