रास्तों को नहीं … मंजिल को देख सकता हूँ. यह कहना है वीरेंद्र कुमार का. ईश्वर ने इन्हें देखने के लिए आंखों में रौशनी नहीं दी. मगर इनका हौसला बनाए रखा. झारखण्ड के गोढ़ा जिले से दिल्ली पढ़ने आए वीरेंद्र हम सभी के लिए एक प्रेरणास्रोत हैं.
रंगीन दुनिया देखने का हक इनसे छीना गया तो क्या हुआ, अपनी इच्छाशक्ति और आत्मविश्वास के सहारे इन्होंने ज़िन्दगी के हर पहलू को सुंदर बनाया है.
कुछ वर्ष पहले तक दिल्ली विश्वविद्यालय में एक छात्रावास के बाहर एक छोटे से गैस चूल्हे पर चाय की स्टाल लगाकर पढ़ाई जारी रखे हुए वीरेंद्र को देखकर कोई कह नहीं सकता था कि वह नेत्रहीन हैं.
अब वह दिल्ली विश्वविद्यालय के ही रामजस कॉलेज में पढ़ रहे हैं. बताते हैं, “मेरे घर में तो कहने को सब हैं, लेकिन कोई भी नहीं.”
“बहनों की शादी हो गई. दोनो बड़े भाइयों की नौकरी लग गई. और फिर वही हुआ … माता-पिता का अपमान और जिम्मेदारियों को पीठ दिखाना. ऐसा किया सब ने. मैं सबसे छोटा … अकेला … सारी जिम्मेदारियां लिए खुशी-खुशी ज़िन्दगी का साथ निभाता चला गया.”
“जैसे जैसे जिम्मेदारियां बढ़ती गईं, मेहनत बढ़ती गई… स्टाल भी बढ़ता गया. जब मंजिल पाना हो, तो कुछ भी मुश्किल नहीं होता.”
वीरेंद्र न सिर्फ बी.ए. स्नातक हिंदी विशेष से अपनी शिक्षा का सपना पूरा कर रहे हैं बल्कि घर का निर्वाह भी कर रहे हैं. यह सब हुआ उनकी साहस और आत्मशक्ति से. वीरेंद्र असल में भारत के उन लोगों के लिए एक आवाज़ है जो परेशानियों से घबरा कर अपने आप को गर्त में गिरा लेते हैं. अगर वीरेंद्र जैसी आत्मशक्ति और विश्वास प्रत्येक इंसान के पास हो… तो भारत बोलेगा.