मेरा गांव सीमा

छोटा सा गांव है मेरा, मधुबनी में – सीमा. मेरा जन्म मेरे ननिहाल गंधबाड़ी में हुआ था. यह जगह भी मधुबनी (Madhubani) में ही है, पंडौल के निकट. मुझे बताया गया कि अस्पताल जाते वक्त रास्ते में ही बैलगाड़ी में मेरा जन्म हो गया. गांव में अस्पताल नहीं था. बहुत लोग ये सुन कर हंसते हैं. पर यह सत्य है. हालांकि हास्यास्पद बात यह है कि तीन दशकों से ज्यादा समय बीत जाने के बाद भी वहां कुछ ज्यादा बदलाव नहीं आया है. आज 30 वर्षों के बाद भी क्या मेरे गांव में मूलभूत सुविधाओं में परिवर्तन आया है?  सोचने का विषय है.

बाबा खेतिहर थे, इलाके में नाम था. किंतु शायद कृषक के कठोर जीवन से सबक लेकर उन्होंने अपने बच्चों को खूब पढाया. पिताजी की नौकरी लगी और हम 1980 के आसपास समस्तीपुर आ गए. पर हर छोटे-बड़े त्यौहार जैसे मकर संक्रांति, होली, चौठ चन्द्र, अनंत पूजा, दशहरा, कोजगरा, दीवाली, छठ, छुट्टियां, शादी, मुंडन, उपनयन में हम गांव जाते रहे. फिर पिताजी का तबादला पटना हो गया. जैसे जैसे गांव से दूरी बढ़ती हमारा गांव जाना धीरे धीरे कम होता गया.

पटना के मिलर उच्च विद्यालय से मैट्रिक किया, फिर आई.आई.टी. और बी.आई.टी. की तैयारी में वर्षों तक लगा रहा. सफलता हाथ नहीं लगी. बहुत ठोकरें खाई. 2000 में एक किताब पढ़ी शिव खेरा की, “यू कैन विन”. किताब का पहला पृष्ठ मन में बैठ गया… “गुब्बारे का बाहर का रंग नहीं, उसके अंदर की बात उसको ऊपर ले जाती है”. मैनेजमेंट में स्नातकोत्तर डिप्लोमा लिया, छोटी-मोटी नौकरियां की, फिर बंगलुरु आ गया. नौकरी के लिए बंगलुरु की गलियों की खाक छानी और धीरे धीरे आगे बढ़ता गया. आज ठीक ठाक स्थिति में हूँ, एक आई.टी. प्रोफेसनल के रूप में. बंगलुरु का आभारी हूँ, और सदा रहूंगा.

नौकरी ने आधी दुनिया देखने का मौका दिया, अमेरिका, मलेशिया, ताइवान और यूरोप. मैनेजर बुला कर पूछते ऑनसाईट जाओगे, कोई समस्या तो नहीं है. मैं हमेशा ये सोचता कि जब घर में नहीं हूँ तो दुनिया के किसी भी कोने में रहूँ क्या फर्क पड़ता है. आज कल जर्मनी में हूँ और जब भी मौका मिलता है निकल पड़ता हूँ यूरोप की सैर करने.

मां इलाहाबाद में पली-बढी थी. हिन्दी में लिखने का शौक था और काफी अच्छा लिखती थीं. लिखने का शौक मुझे विरासत में मिला.

किंतु दुनिया में कहीं भी रहूँ, गांव-देश की याद हमेशा आती है. अपने गांव “सीमा” (Seema Village) में बसना चाहता हूँ. थोड़ा स्वार्थी और आराम तलब हो गया हूँ, इसलिए आज के “सीमा” में नहीं बल्कि उस “सीमा” में बसना चाहता हूँ जहां निरंतर बिजली हो, फास्ट इंटरनेट सुविधा हो, प्रचुर नौकरियां हों, अच्छे अस्पताल हों, विद्यालय हों, सड़के हों, सभी स्वस्थ हों, समृद्ध हों.

ऐसी कल्पना भारत के हर गांव (village) के लिए है. और ऐसा मुश्किल नहीं है, क्योंकि मैं ये बातें जर्मनी में एक छोटे से गांव ओबेरसलिंगन में बैठ कर लिख रहा हूँ और आशा करता हूँ कि ये अपने जीवन में देख सकूंगा. – अमिताभ झा


अपने इन्हीं सपनों को साकार करने के लिए अमिताभ बिहार रिवाइवल फोरम के माध्यम से प्रयत्नशील हैं.


भारत बोलेगा: जानकारी भी, समझदारी भी