कैसे बनाएं यूथ पाठशाला

प्रियंका आपसे बात करना चाहती हैं. आज के यूथ को नई दिशा देना चाहती हैं. कहती हैं: “अस्तव्यस्तता होने के कारण बड़ा कन्फयूजन है. युवाओं को नहीं मालूम उन्हें क्या करना है. आज गार्जियन को भी नहीं पता होता, उनके बच्चों के लिए क्या बेहतर है.”

मगर, ऐसे में एक प्रियंका क्या कुछ कर पाएंगीं? “मजबूत इरादे होने चाहिए, कुछ भी असंभव नहीं,” यह कहते हुए उनका चेहरा लाल हो जाता है… जैसे उन्हें चुनौती दे दी गई हो, उनके इगो को धक्का लगा हो.

तुरंत ही वह अपने आपको संभालती हैं – “भारत में कितनी ही प्रियंका हैं. मुझे उन्हें एक सूत्र में बांधना है. उन सबको एक प्लेटफार्म पर लाना है. बड़ा टास्क है, उसी की तैयारी कर रही हूँ.”

सचमुच स्टुडेंट्स के लिए कैरियर टॉप प्राथमिकता है. पर इस प्राथमिकता पर कितना काम हो रहा है? क्या हम माकूल परामर्श के मंच भी बना पाए हैं? इसलिए लगता है प्रियंका की बातों में दम है.

इस भागते युग में युवाओं को सही दिशा की जरूरत है. उनकी एकाग्रता निरंतर भंग होती दिख रही है. वैश्वीकरण की आंधी ने यूथ को एक उपभोक्ता मात्र बना कर रख दिया है – सिर्फ एक कंजयूमर.

Priyanka-Bhardwaj-Listing-out-priorities.-Photo-by-Neeraj-Bhushan
प्रियंका

पर दिल्ली के जामिया मिलिया इस्लामिया से टेलीविजन पत्रकारिता में पोस्ट ग्रेजुएट डिप्लोमा करने के दौरान ही प्रियंका भारद्वाज ने ‘कुछ’ करने का ठान लिया था – “खुद भी बनूंगी और दूसरों को भी बनाऊंगी.”

प्रियंका तभी से ‘यूथ पाठशाला’ नाम की पत्रिका निकालने लगीं. पत्रिका का रजिस्ट्रेशन करवाना चाहा लेकिन उसके लिए तकनीकी कारणों से 2009 तक इंतज़ार करना पड़ा. आज पत्रिका के साथ-साथ प्रियंका एक एन.जी.ओ. – यूथ पाठशाला फाउंडेशन – भी चला रही हैं.

प्रियंका आल इंडिया रेडियो में सेवा योगदान देती हैं और तनख्वाह के पैसे से अपनी आकांक्षाओं को पंख लगाती हैं. उनकी उम्र के कई यूथ अभी ठीक ढंग से किसी पत्रिका के पाठक भी नहीं बने होंगे. लेकिन प्रियंका के बिजनेस कार्ड पर ‘एडिटर’ डेजिगनेशन इम्प्रेसिव लगता है.

यूथ पाठशाला फाउंडेशन का गठन उन्होंने एक नेटवर्क बनाने के लिए ही किया है. “कई क्रिएटिव लोग शामिल हैं इसमें. यही लोग यूथ पाठशाला पत्रिका निकालने में भी लगे हैं. एक वेबसाईट पर भी काम चल रहा है जो हिंदी, अंग्रेजी और उर्दू में होगी. हम अपनी जिम्मेदारियां समझते हैं. बस उसका निर्वाह करते जाना है. रिजल्ट खुद-ब-खुद मिलेगा.”

लोग जुड़ने शुरू हो गए हैं. सही है – दिल है छोटा सा, छोटी से आशा … चांद तारों को छूने की आशा, आसमानों में उड़ने की आशा. और हां, हो सकता है कोई एक प्रियंका आपसे मिलने पहुंचे. तब क्या आप उसकी भोली आशाओं को आकार दे पायेंगे?


भारत बोलेगा: जानकारी भी, समझदारी भी