सच्चे दोस्त बनकर अपने बच्चे को तनावमुक्त रखें

how to take child out of stress and deprssion

बच्चा अगर तनाव (stress) या डिप्रेशन (depression) में चला जाए, तो अभिभावक क्या करे? नवीं कक्षा में पढ़ने वाली रिदम जब मेरे संपर्क में आई तो आश्चर्य हुआ – क्योंकि जो बच्ची नर्सरी से आठवीं कक्षा तक अव्वल अंकों से उत्तीर्ण होती आ रही है, वह अचानक डिप्रेशन में कैसे चली गई?

बात करते हुए जान पाई कि उसकी गणित की अध्यापिका उससे कुछ नाराज़ रहा करती हैं. कारण उसकी पढाई नहीं, बल्कि उसका दोस्तों के साथ रहना है. उन्हें यह बात पसंद नहीं कि रिदम लड़की होते हुए भी ज़्यादातर लड़कों से दोस्ती रखे.

हंसना बोलना और उसका चुलबुलापन उन्हें नहीं भाता. कई बार पीटीएम यानी पेरेंट्स टीचर मीटिंग के दौरान अध्यापिका महोदया द्वारा रिदम के पिताजी को ये सारी बातें शिकायत के तौर पर भी सुनने को मिला करतीं.

पिछली बार गणित में जब रिदम के 5 से 10 अंक कम हो गए, तब भी उन्होंने यह मौका नहीं छोड़ा. हर बार की तरह इस बार भी रिदम के पिताजी ने उनकी शिकायतों को बहुत सहजता से लिया और अपनी बेटी पर भरोसा जताते हुए कहा- “जब तक वह पढ़ाई अच्छी कर रही है, और उसका आचरण अच्छा है, मैं खुश हूं. केवल मार्क्स ही तो सब कुछ नहीं होते ना?”

दो महीने बीते और तिमाही का रिजल्ट आया. रिदम ने सातों विषयों में पूरी नवीं कक्षा में टॉप किया. वो खुशी से फूली ना समाई जब गणित की अध्यापिका क्लास में आईं और पूछा कि इस बार सबसे अव्वल नंबर किसके हैं. एकदम सातवें आसमान पर सवार रिदम ने अपना उत्तर-पत्र उन्हें दिखाया.

उत्तर-पत्र हाथ में लेते ही अध्यापिका ने कहा कि तुम्हारे पेपर में तो इतनी गलतियां भरी थीं कि इतने नंबर आ ही नहीं सकते. फिर एक-एक कर हर प्रश्न में से आधा या एक नंबर उन्होंने काटना शुरू कर दिया.

पूरे 8 नंबर घटा कर, रिदम की रोनी सूरत देख पूरी कक्षा के सामने फिर यह सांतवना देने लगीं- “तुम रोती क्यों हो? वैसे भी केवल मार्क्स ही तो सब कुछ नहीं होते ना?”

कटाक्ष की भावना में रिदम के पिताजी के द्वारा कहे गए इस वाक्य को वह कई बार दोहराती रहीं. एक शिक्षिका का ऐसा व्यवहार, वो भी एक किशोरावस्था की छात्रा से क्या शोभनीय है? हम क्या तो बच्चों को सिखाएं और क्या ही ऐसी शिक्षिकाओं को?

ज़रूरत है हमें अपने हर बच्चे को उनके और, उनकी सूझबूझ के अनुसार आंकने एवं समझने की. हर बच्चा अलग-अलग घर व परिवेश से आता है. सभी की सोचने, समझने की क्षमता अलग-अलग होती है.

लड़के लड़कियों की दोस्ती को एक ही तरह की नज़र से देखने वाले अपनी छोटी बुद्धि का प्रमाण देते हैं. ऐसी स्थिति में रिदम को दोषी ठहरा कर उसकी शिक्षिका ने दुर्व्यवहार के साथ-साथ लिंगभेद का भी उदाहरण सामने रखा.

किशोरावस्था एक बहुत नाज़ुक दौर है, जहां सिर्फ किशोरों को ही नहीं, बल्कि उनके माता-पिता, अभिभावकों एवं शिक्षकों को भी सूझबूझ का इस्तेमाल करने की ज़रूरत है.

बच्चे इस अवस्था में अब व्यस्क बन रहे हैं, उन्हें समझें. जितना आप अपने बच्चों पर भरोसा कर पाएंगे, बच्चे भी आपके ऊपर उतना ही भरोसा कर पाएंगें. उन्हें डराने या धमकाने की नहीं, उनके दोस्त बन कर उन्हें सही राह दिखाने की ज़रूरत है.

कितना अच्छा हो यदि हर पौधे (बच्चे) को ज़रूरत के अनुसार सूर्य की ऊर्जा, पानी, वायु और पदार्थ मिलें. फिर हमारी बगिया में लहलहाते व खिलखिलाते हुए फूल होंगे. खूबसूरत व सुगंधित फुलवारी हमारी होगी.


भारत बोलेगा: जानकारी भी, समझदारी भी