पहली महिला सूफी संत राबिया बसरी

सूफियों ने हमेशा प्रेम की बात की. सूफी राबिया बसरी के मुताबिक, ना जन्नत चाहिदी है ना दोज़ख़, सिर्फ प्रेम चाहिदा है. किसी सूफी फकीर ने कहा है – हद तपे तो औलिया, बेहद तपे सो पीर. हद बेहद दोऊ तपे, वाको नाम फकीर.

हद और बेहद को पार करके ही कोई इंसान तन-मन से ऊपर उठ संत-फकीर बनता है. कष्ट और साधना से तपकर ही राबिया बसरी पहली महिला सूफी संत बनीं.

सन 717 में इराक के बसरा में पैदा हुई राबिया कहती थीं कि दिल को ऐसा रंगो कि सब उसी रंग में रंग जाए. कहते हैं कि जब राबिया का जन्म हुआ तो उसके घर में गरीबी इतनी थी कि चिराग़ में तेल न था.

मशहूर सूफी और 114 किताबों के लेखक हजरत फरीदुद्दीन अत्तार ने अपनी किताब ‘तजकिरात उल औलिया’  में राबिया की जीवनी विस्तार से लिखी है. कहा जाता है कि उस रात माता-पिता को स्वप्न आया. कोई कह रहा था- यह बच्ची परमात्मा की प्रिय है. आगे चलकर यह बड़ी संत बनेगी.

राबिया के घर में सामान के नाम पर एक टूटा घड़ा, एक चटाई और एक ईंट थी. चटाई पर वे साधना करती थीं और ईंट उनका तकिया थी.

राबिया का यह कथन बहुत छूने वाला है, “ऐ खुदा, अगर मैं नरक के भय से तुम्हारी उपासना करूं तो मुझे नरक की आग में ही जलाते रहना और अगर स्वर्ग पाने की अभिलाषा से उपासना करूं तो उससे मुझे वंचित कर देना.”

वह उन सूफी संतो में थीं जिन्हें वास्तव में रहस्यवादी कहा जाता है. परमात्मा के प्रति उनका प्रेम इतना अधिक था कि उन्हें किसी वस्तु की आवश्यकता प्रतीत ही नहीं होती थी.

सूफी संत वो घने पेड़ हैं जो सूफी इस्लाम की चारदीवारी में पैदा तो हुए पर इनकी छाया दूर दूर तक जाती है. सूफी बेपरवाह तो होते हैं पर लापरवाह नहीं. सूफियों के लिए सबसे बड़ी चीज मानवता और कायनात है.

वो कहती थीं – “मेरी नजर में नफरत के लायक कोई नहीं है क्योंकि अब मुझे हर तरफ सिर्फ प्रेम ही प्रेम नज़र आता है, इंसान हो या शैतान, दोस्त हो या दुश्मन किसी से नफरत नहीं की जानी चाहिए.”

मां-बाप के गुजर जाने के बाद राबिया को किसी ने गुलाम बना कर बेच दिया. वह दिन भर पूरी मेहनत व लगन से अपने मालिक का काम करतीं और रात में परमात्मा का ध्यान लगातीं. एक रात ऐसे ही वह माथा झुकाए प्रार्थना कर रही थीं – ऐ खुदा! तुम तो मेरे दिल की बात जानते हो कि मैं बराबर तुम्हारी ही सेवा में लगी रहना चाहती हूं, लेकिन तुमने मुझे एक व्यक्ति का गुलाम बना रखा है. इसलिए दिन में तेरे दरबार में आने की फुर्सत नहीं मिलती.

संयोग से उसी समय उसके मालिक की आंख खुल गई और उसने राबिया की बातें सुन लीं. उसे समझ आया कि वह निस्संदेह कोई पाक हस्ती है और उससे सेवा लेना बड़ा गुनाह है. दूसरे ही दिन उसने राबिया को आजाद कर दिया. राबिया वहां से चली गई और उसने गोशानशीनी (एकांतवास) इख्तियार कर ली. सन 801 में राबिया का इंतकाल हुआ. राबिया की दरगाह येरुशलम के करीब है.


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