शालिम हुसैन: अनुवाद में मजा

शलीम एम हुसैन एक लेखक, अनुवादक और शोधकर्ता हैं. हुसैन असम के कामरूप ग्रामीण जिले के सोंतोली गांव से हैं. ये लंबे समय से चर-चपोरियों के साहित्य और संस्कृति पर काम कर रहे हैं. ये इटमुगुर के संस्थापकों में से एक हैं. इटमुगुर एक कला सामूह है जो असम के चर-चपोरियों के साहित्य और कला को बढ़ावा देता है. हुसैन द्वारा अनुवादित ‘मियाह कविता’ श्रृंखला की कुछ कविताओं को अब सनफ्लावर कलेक्टिव ब्लॉग पर क्रमबद्ध किया जा रहा है. हुसैन अंग्रेजी विभाग, जामिया मिलिया इस्लामिया में पीएचडी के विद्वान हैं और वर्तमान में असमिया साहित्यिक एस्थेटिक्स पर काम कर रहे हैं. इन्होंने कंचन बरुआ द्वारा अंग्रेज़ी में लोकप्रिय असमिया उपन्यास ‘असिमोट जार हेरल सिमा’ का भी अनुवाद किया है.

आपको लिखने की प्रेरणा कहां से मिलती है? विशेष रूप से कविता का माध्यम ही क्यों?

मुझे लगता है कि कहानियों को बताने की इच्छा मुझे लिखने के लिए प्रेरित करती है. मैं गद्य और कविता दोनों का ही उपयोग करता हूँ लेकिन आवेग हमेशा कहानियों को बताने के लिए रहा है. हालांकि, मैं उस कहानी के आधार पर माध्यम का चयन करता हूँ जिसे मैं बताना चाहता हूँ. यदि कोई व्यक्तिगत या वास्तविक घटना है तो मैं कविता को तरजीह देता हूँ. यदि कहानी वर्णों पर आधारित है, तो मैं लघुकथाएं चुनता हूँ. कभी-कभी मैं छंदों में कहानी लिखना शुरू कर देता हूँ और यदि मुझे लगता है कि गद्य इसके लिए इसके अनुकूल है, तो फिर मैं अपना रास्ता बदल लेता हूँ.

शलीम एम हुसैन
शलीम एम हुसैन

लिखने के प्रति आपकी रूचि कैसे बढ़ी और अभी तक आपकी यह यात्रा कैसी रही है?

रूचि काफी पहले से ही थी. मेरे माता-पिता बहुत ही अच्छे स्टोरीटेलर्स थे. दोपहर या शाम के समय जब उनके पास कुछ खास काम नहीं होता था, तब वे मुझे और मेरे भाई-बहनों को कहानियां सुनाया करते. बरसात के महीनों में हमारे घर में नियमित रूप से स्टोरीटेलिंग सेशन होता था. जब हमारे माता-पिता व्यस्त रहते तो हम अपनी कहानियां बनाना शुरू कर देते थे. कहानियां बुनने की मेरी शुरुआत इसी प्रकार हुई. स्कूल में मेरे शिक्षकों को एहसास हुआ कि मुझे लेखन कार्य में बहुत मज़ा आता था, इसलिए उन्होंने मुझे और अधिक लिखने के लिए प्रोत्साहित किया. मेरे एक अद्भुत शिक्षक थे रंजीत राय, जो एक बेहतरीन लेखक थे. वह स्कूल उत्सवों में हमारे लिए नाटक लिखा करते और एक निश्चित समय आने पर विद्यार्थियों को लेखन कार्य सौंपते थे.

क्या आप किसी लेखन दिनाचर्या या राइटिंग डिसिप्लिन का पालन करते हैं?

नहीं. मैं किसी खास अनुशासन का पालन नहीं करता. हां, जब मैं कुछ लंबा लिखता हूँ तब आम तौर पर कुछ दिनों के लिए लगातार लिखना पसंद करता हूँ.

आप एक कवि, अनुवादक और एक शिक्षक रहे हैं. आपने लाठीबारी पर एक वृत्तचित्र फिल्म का सह निर्देशन भी किया है. आप इनमें से किस क्षेत्र से सबसे अधिक जुड़ाव महसूस करते हैं? किस क्षेत्र में आपको सबसे ज्यादा चुनौती मिली है?

मुझे लगता है कि मैं सबसे अधिक अनुवादन का मजा लेता हूँ. इसका कारण सरल है. मैं जिन काम को पसंद करता हूँ, उनका अनुवाद करता हूँ. ऐसा करने से मेरे ऊपर अपनी कृतियों को प्रकाशित करने का दबाव नहीं रहता. कविता लेखन में कड़ी मेहनत है. कविता को डिजाइन करना, उसके बाद संपूर्ण शब्दों के साथ उसका निर्माण करना वास्तव में श्रमसाध्य है. जहां तक शिक्षण का संबंध है, यह एक नौकरी है और आमूमन सभी नौकरियों में अनिवार्य रूप से एक जरूरत की पूर्ती की जाती है. हांलाकि मैं साहित्य पढ़ाता हूँ और सौभाग्यपूर्वक मुझे उन ग्रंथों एवं लेखकों के बारे में पढ़ाने का मौका मिलता है जिनकी मैं सराहना करता हूँ.

चूंकि आप असमिया लेखक के रूप में भी जाने जाते हैं, तो क्या इस लेखन माध्यम से मान्यता मिलने में आपकी क्षेत्रीय पहचान की कोई भूमिका रही है?

जहां तक मान्यता का संबंध है, मुझे ऐसा नहीं लगता. हालांकि लोग हमेशा ‘नए’ में रुचि रखते हैं. उदाहरण के लिए, जब हमने मियाह कविता श्रृंखला शुरू की थी, तो लोग यह जानने के लिए उत्सुक थे कि हमारी कुछ ख़ास मुद्दों के बारे में क्या सोच है. हम थोड़ी अलग, थोड़ी ताजा भाषा बोल रहे थे शायद इसलिए क्योंकि हम असम के एक विशिष्ट भाग और समुदाय से आए थे.

मियाह पोएट्री कैसे शुरू हुई?

मियाह पोएट्री विरोध कविता की परंपरा की निरंतरता है जो उन बंगाल मूल के असम मुसलमानों द्वारा शुरू की गई थी जो नदियों के द्वीपों (चर) या नदी के किनारे (चपोरी) पर रहते थे. चर-चपोरी कवि लेखन एवं गायन के माध्यम से उलाहना किया करते थे – जिन कठोर परिस्थितियों में वे रहते थे, बुनियादी सुविधाओं तक पहुंच की कमी, बांग्लादेश से अवैध आप्रवासियों के संदेह पर प्रशासन का निरंतर दुर्व्यवहार इत्यादि. सड़कों पर इस समुदाय को ‘मियाह’ के नाम से जाना गया. अब, चर-चपोरियों के कई कवि हैं जो अपने ‘मियाह’ अनुभवों के बारे में लिख रहे हैं. लेकिन अप्रैल 2016 में हमने फेसबुक पर हमारी कविताओं को पोस्ट करना शुरू कर दिया. यह सब डॉ. हफीज अहमद द्वारा लिखी गई एक कविता के साथ शुरू हुआ, जिसकी मैंने एक प्रतिक्रिया लिखी. मेरी कविता ने एक और प्रतिक्रिया हासिल की और जल्द ही हमारे पास कविताओं की एक श्रृंखला थी – एक कवि किसी दूसरे कवि द्वारा पोस्ट की गई कविता पर टिप्पणी देते या उसपर विस्तार से चर्चा करते. यह संवाद बढ़ता ही गया. कविताओं का अनुवाद करना और उन्हें प्रकाशित करना अगला चरण था.


भारत बोलेगा: जानकारी भी, समझदारी भी