फिल्म समीक्षा आसान नहीं

Murtaza Aliमुर्तजा अली खान एक स्वतंत्र फिल्म समीक्षक हैं. इनकी मूवी वेबसाइट का नाम है अ पॉटपुरी ऑफ वेस्टीजेज जिसे तमाम मीडिया वेबसाइट सर्वोत्तम फिल्म समीक्षा का माध्यम मानती हैं. मुर्तजा दिल्ली में रहते हैं और हफिंग्टन पोस्ट सहित कई मीडिया संस्थानों के लिए फिल्म समीक्षा लिखते हैं.

आप फिल्म रिव्यु क्यों करते हैं? फिल्म समीक्षा कोई क्यों पढ़ता है? फिल्म देखने वाले सीधे फिल्म ही क्यों न देखें?

इसका जवाब दो तरीकों से दिया जा सकता है. पहला – आजकल टिकट के दाम आसमान छू रहे हैं. ज़ाहिर है हर फिल्म नहीं देखी जा सकती. एक फिल्म समीक्षक का ये काम होता है कि वो दर्शक को सही राह दिखाए. आखरी फैसला तो दर्शक के हाथों में होता है. मगर हां एक बेकार फिल्म पर अपना समय और पैसा दोनों बर्बाद न हो, इसके लिए फिल्म समीक्षक को पढ़ा जा सकता है. दूसरा यह कि एक फिल्म समीक्षक का कर्तव्य होता है कि फिल्म कला के बारे में वह दर्शकों का ज्ञान बढ़ाए. कई बार दर्शकों को इसकी ज़रूरत पड़ती है. मेरे कहने का मतलब है कि इस कला में ऐसा बहुत कुछ है जिसे देखा, पढ़ा और सराहा जा सकता है. एक समीक्षक कड़ी मेहनत से कई मोतियों को एक माला में पिरोता है.

फिल्म की समीक्षा और रेटिंग कितनी सच्ची होती है?

कला को प्रस्तुत करने का हर किसी का अपना अलग तरीका होता है. अपनी-अपनी पसंद-नापसंद होती है. मुझे यकीन है कि हर फिल्म समीक्षक अपना काम बेहद इमानदारी और संजीदगी से करता है, मगर अपवाद कहां नहीं पाए जाते हैं.

ऐसे कुछ समीक्षकों का नाम बताएं जिन्हें हमारे पाठकों को पढ़ना चाहिए?

आजकल की पौध के बारे में मैं कुछ नहीं कहना चाहूंगा, लेकिन कुछ महान लोगों में रॉजर इबर्ट, पौलिन कैल, सुज़न सौंटैग और जीन सिस्क्ल का नाम ज़रूर शामिल है. नई शुरुआत हो तो इबर्ट की ग्रेट मूवीज संग्रह ज़रूर देखें. और सिस्क्ल-इबर्ट के डिस्कशन भी यूट्यूब पर सुन सकते हैं. कैल और सौंटैग ने कई कमाल की किताबें लिखी हैं जो हर फिल्म समीक्षा प्रेमी को ज़रूर पढ़नी चाहिए.

ऐसे कौन से पुराने समीक्षक हैं जिन्हें आज हम याद कर सकते हैं?

यह लिस्ट तो बहुत लंबी है, अगर मैं नाम लेना शुरू करूं तो इसका कोई अंत नहीं होगा. ऐसे कई महान कलाकार है जिनका स्मरण और अनुसरण दोनों किया जा सकता है. कई ऐसे फिल्मकार, अभिनेता और समीक्षक याद आते हैं जो अगर आज हमारे बीच होते तो शायद ये ज़मीन और खूबसूरत होती. समीक्षकों की बात की जाए तो मैं रॉजर इबर्ट और जीन सिस्क्ल की कमी बहुत महसूस करता हूँ. इबर्ट का देहांत कुछ ही समय पहले हुआ मगर सिस्क्ल 1999 में चल बसे, तब मैं छोटा था. इनकी लेखनी से हम बहुत कुछ सीख सकते हैं. इबर्ट की टिपण्णी पढ़ना बहुत जरूरी है. मेरे विचार शायद उनके विचारों से सहमत न हों मगर मैं उनकी सोच की इज्ज़त करता हूँ. 2013 के पहले रिलीज़ हुई हर महत्वपूर्ण फिल्म की समीक्षा इबर्ट ने ज़रूर की होगी. इससे पता चलता है कि अपने जीते जी उन्होंने कितनी बारीकी से फिल्म कला की दिशा में काम किया.

एक फिल्म को बनने में कुछ साल-महीने लग जाते हैं. तो क्या ये नाइंसाफी नहीं कि समीक्षक तपाक से इसकी किस्मत का फैसला कर देते हैं?

मैंने कुछ दिनों पहले ये मुद्दा उठाया था कि ये ज़रूरी है कि सबसे पहले आप सिनेमा से प्यार करें. एक समीक्षक के लिए ये आसान होता है फिल्मों और फिल्मकारों की समीक्षा करना और अपनी कर्तव्यनिष्ठा का प्रदर्शन करना. दूसरी तरफ प्रशंसा करना भी एक जिंदादिली है.

मैं कई सर्वश्रेष्ठ फ़िल्में देख चुका हूँ. मैं जानता हूँ कि समीक्षा करना हर किसी के बस का नहीं है, ना ही सभी निर्माता-निर्देशक अच्छी फिल्में बना सकते हैं. इसका ये मतलब नहीं है कि हम कोशिश करना छोड़ दें. एक समीक्षक होने के नाते मैं कह सकता हूँ कि एक बुरी फिल्म को बचाया नहीं जा सकता, मगर एक अच्छी फिल्म लोगों तक पहुंचे, ये ज़रूर सुनिश्चित किया जा सकता है.


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