लोकतंत्र में आग

लिबर्टी यानि आज़ादी या स्वतंत्रता के लिए ही मनुष्य जीता है. अगर आज़ादी पर ही खतरा मंडराने लगे तो प्रतिरोध स्वाभाविक है. लोकतांत्रिक देशों में कुछ ऐसी ही स्थिति बन रही है. भारतीय लोकतंत्र भी इससे अछूता नहीं रह सका है.

यही प्रतिरोध अगर तानाशाही व्यवस्था में हो तो बात समझ में आती है; परंतु लोकतंत्र तो प्रजातांत्रिक व्यवस्था है जिसमें सरकारें जनता द्वारा बनायी जाती हैं और उनका चरित्र जनता के सेवक का होता है.

लेकिन ऐसा प्रतीत हो रहा है कि लोकतंत्र भी अब अधिनायकतंत्र (तानाशाही) जैसा व्यवहार करने लगा है. उदारवाद लोकतंत्र अब एक ‘बंधक लोकतंत्र’ में परिवर्तित हो रहा है.

दुनिया भर में प्रतिरोधी आंदोलन की जमीन हो रही मजबूत

ऐसा नहीं है कि सिर्फ भारत की संस्थाएं ही इस परिवर्तन से झुलस रही हैं. हाल के वर्षों में विश्व पटल पर ऐसे कई प्रतिरोधी आंदोलन देखने को मिले हैं. अमेरिका के येल और मिस्सुरी विश्वविद्यालय के लगभग सत्तर से ज्यादा कॉलेज के विद्यार्थियों ने जातीय (रेशियल) भेदभाव के खिलाफ प्रतिरोधात्मक संघर्ष आयोजित किया.

कोलंबिया विश्वविद्यालय में सेक्शुअल (यौन-जनित) अपराध के खिलाफ एक महिला द्वारा काफी लंबे समय तक ‘मैट्रेस रिवोलुशन’ चलाया गया जिसे वहां के लोगों का बड़े पैमाने पर समर्थन मिला.

Protest in Democracy

अमेरिका में ही बढ़ते शिक्षा के कर्ज से प्रताड़ित छात्रों द्वारा ‘मिलियन स्टूडेंट मार्च’ आयोजित किया गया. यूनिवर्सिटी ऑफ केप-टाउन में ‘रोड्स मस्ट फाल’ कैंपेन आयोजित किया गया जिसका उद्देश्य सिसिल रोड्स की प्रतिमूर्ति को ध्वस्त कर शिक्षा के क्षेत्र को शैक्षिक व आर्थिक उपनिवेशवाद से मुक्त करना था, जो कि ऑक्सफोर्ड, एडिनबर्ग और बर्कले के संस्थानों में बड़े पैमाने पर व्याप्त हो चुका है.

ब्रिटेन में छात्रों ने शिक्षा पर घटते बजट के विरुद्ध टोरी शासन व्यवस्था के खिलाफ आवाज बुलंद की. हाल ही में जब बांग्लादेश की सरकार ने छात्रों की ट्यूशन फी पर कर लगाया तो छात्रों ने जमकर विरोध किया और सरकार को ये कर वापस लेना पड़ा.

असहिष्णुता, रोहित वेमुला, जेएनयू से लेकर भारत माता तक

भारत में भी जब सरकार ने एमफिल और पीएचडी में दी जा रही छात्रवृत्ति को हटाने का फैसला लिया तो जेएनयू के विद्यार्थियों द्वारा ‘ऑकुपाई यूजीसी’ आंदोलन का आगाज़ किया गया और इसके दूरगामी राजनीतिक परिणाम दिखे.

भारत में असहिष्णुता पर चल रही बहस के अलावा कई शिक्षण संस्थान में आंदोलन और प्रतिरोध की आग भड़की. भारतीय फिल्म और टेलीविजन संस्थान में नियुक्ति को लेकर छात्रों द्वारा संघर्ष का एक लंबा दौर चला.

विगत दो वर्षों में ही हैदराबाद सेंट्रल यूनिवर्सिटी, जवाहरलाल नेहरु यूनिवर्सिटी, जादवपुर यूनिवर्सिटी (कोलकाता), इंडियन इंस्टिट्यूट ऑफ टेक्नोलॉजी (चेन्नई), इंडियन इंस्टिट्यूट ऑफ फैशन टेक्नोलॉजी, इलाहाबाद यूनिवर्सिटी और अब नेशनल इंस्टिट्यूट ऑफ टेक्नोलॉजी (एनआईटी, कश्मीर) में विभिन्न समस्याओं को लेकर प्रतिरोध आरंभ हो गए.

भारत में ‘लव ऑफ किस कैंपेन’, ‘घर वापसी’, ‘बीफ खाने के विरुद्ध’, ‘सांप्रदायिकता के विरुद्ध’, ‘भूख, गरीबी, और बेरोजगारी से आज़ादी’, के लिए प्रतिरोध कभी हिंसात्मक, कभी अहिंसात्मक तो कभी प्रतीकात्मक तरीके से आयोजित होते रहे हैं.

जन सेवक बन रहे जन मालिक

भारत सहित वैश्विक स्तर पर इस प्रकार लोकतंत्र में हो रहे प्रतिरोध के मूलभूत कारणों में कुछ कारण हैं: ‘बढ़ती जनसंख्या घटते संसाधन’, ‘विकास की आड़ में सत्ता की राजनीति (पॉवर पॉलिटिक्स)’, ‘राजनीति का गिरता स्तर’, ‘राजनेताओं और राजनीतिक नेतृत्व का स्वार्थीपन’, ‘जन-सेवक का जन-मालिक बन जाना’.

बहरहाल, एक अंतरराष्ट्रीय सम्मलेन में कांग्रेस उपाध्यक्ष राहुल गांधी की यह टिप्पणी बहुत कुछ सोचने पर मजबूर करती है – ‘यूरोप को एक लोकतांत्रिक ढांचा खड़ा करने के लिए एक आधी शताब्दी, दो विश्व युद्धों, बिखरे परिवारों की त्रासदियों से होकर गुज़रना पड़ा. वहीं तीन गुना अधिक आबादी वाले भारत ने एक अहिंसक आंदोलन के माध्यम से लोकतंत्र की नींव तैयार कर ली थी. कोई विश्व युद्ध नहीं. कोई हिंसा नहीं.’


भारत बोलेगा: जानकारी भी, समझदारी भी