पंजाब में सत्ता और संयम के खेल में झूलते सिद्धू

नवजोत सिंह सिद्धू (Navjot Singh Sidhu) को पंजाब कांग्रेस प्रमुख (Punjab Congress President) बनाया गया है, जिस निर्णय का मुख्यमंत्री कैप्टन अमरिंदर सिंह अंत तक विरोध करते रहे.

मीडिया रिपोर्ट बता रही है कि पंजाब में कांग्रेस का झगड़ा फ़िलहाल खत्म होने का नाम नहीं ले रहा. सम्प्रति 79 साल के कैप्टन सिंह अब इस उम्र में नई पार्टी बनाने का जोखिम तो उठाएंगे नहीं.

मार्च 2022 में पंजाब की 16वीं विधानसभा का कार्यकाल समाप्त हो रहा है. अतः चुनावी सरगर्मी का बढ़ना लाजिमी है.

चुनाव का मौसम आते ही आयाराम और गयाराम विधायकों की गणित दिखने लगती है. अपने-अपने आकलन के अनुसार वो एक राजनीतिक दल को छोड़कर दूसरे दल, जिसके सरकार बनाने की संभावना बन रही हो, में जाने की जुगत में लग जाते हैं. राजनीतिक दलों के अंदर भी कलह की झलक मिलने लगती है. ओपिनियन पोल की दुकानें भी राजनीतिक दलों के भविष्य को लेकर अपने गणित के साथ बाज़ार में टर्र-टर्र करने लगती हैं. पंजाब के आगामी चुनाव को लेकर ये सारे आयाम प्रारंभ हो चुके हैं.

कांग्रेस पार्टी में नवजोत सिंह सिद्धू और कैप्टेन अमरिंदर सिंह के बीच का आन्तरिक कलह चुनावी विश्लेषकों को भरपूर मसाला दे रहा है. अमरिंदर सिह का सिद्धू के प्रति नापसंद 2017 के चुनाव में ही जगजाहिर हो चुका था जब सिद्धू आनन-फानन में भारतीय जनता पार्टी का परित्याग कर कांग्रेस में आए थे.

सिद्धू ने कांग्रेस नेता सोनिया गांधी और राहुल गांधी के इर्द गिर्द लॉबी कर बहुत दबाव बनाया कि उन्हें उप-मुख्यमंत्री की कुर्सी मिल जाए या फिर गृह मंत्रालय. परन्तु सिद्धू को अक्षय उर्जा मंत्रालय से संतोष करना पड़ा.

Navjot Singh Siddhu

पिछले चार वर्षो के दौरान सिंह बनाम सिद्धू हर मीडिया में चर्चा का विषय बना रहा और दोनों एक दूसरे के खिलाफ बयानबाजी भी करते रहे. कांग्रेस आलाकमान दोनों के बीच सामंजस्य बनाने में अब तक तो सक्षम है, परन्तु समयबद्ध तरीके से इस तू तू मैं मैं अंत नहीं किया गया तो यह आन्तरिक कलह कांग्रेस के हार का कारण भी बन सकती है.

एक ओर अमरिंदर सिंह जहां लोकप्रिय नेता हैं वहीं दूसरी ओर सिद्धू लोकप्रिय होने के साथ-साथ लच्छेदार और प्रभावी वक्ता हैं. युवा-शक्ति से लबरेज सिद्धू अत्यंत महत्वाकांक्षी भी हैं. फिलहाल वे सत्ता और क्रिकेट के बुनियादी फर्क को समझने में जल्दीबाजी कर रहे हैं.

क्रिकेट में आए दिन मुकाबले होते रहते हैं – एक मैच में फ्लॉप हुए तो दूसरे में बल्ला चला और वाहवाही मिल जाती है. ज्ञात हो कि क्रिकेटर महेंद्र सिंह धोनी को जनता अगर सर-माथे पर बिठा रखी थी तो उसी के घर के बाहर उसके पुतले भी जलाए गए.

सत्ता का खेल संयम और समय का है. संयम के साथ स्वयं के समय का इंतज़ार करना पड़ता है. इतिहास गवाह है कि बहुत सारे काबिल और योग्य राजनेता प्रधानमंत्री और मुख्यमंत्री की कुर्सी से आजीवन वंचित रह गए.

कांग्रेस अभी तक बीजेपी के ‘मार्गदर्शक मंडल’ वाले फॉर्मूले से परहेज करती रही है जिसका खामियाजा भी उसे उठाना पड़ा है. ज्योतिरादित्य सिंधिया कांग्रेस छोड़कर बीजेपी का रुख कर लिए, वहीं सचिन पायलट राजस्थान में सत्ता बनाने के गणित में उलझे और उछलते रहे. पंजाब में सिद्धू लगभग वैसी ही भूमिका में हैं.

सत्ता एक खेल नहीं बल्कि सेवा का भाव है. संयम के साथ जनता की सेवा में लीन रहे लोगों को कुर्सी न भी मिले तो वे जनता के दिल और दिमाग पर राज करते हैं. भारतीय लोकतंत्र की यह बड़ी त्रासदी रही है कि लगभग सभी राजनेता सिर्फ सत्ता की राजनीति में अपना बहुमूल्य समय लगाते हैं न कि सेवा की राजनीति में.

सिद्धू वक्त की नजाकत को समझें और कांग्रेस के हाथ मजबूत करें ताकि पार्टी सत्ता में बनी रहे. पार्टी का अस्तित्व ही राजनेता के अस्तित्व को कायम रखेगा. वर्ना जनता में उनकी छवि एक सत्ता-लोलुप नेता की बन जाएगी, और कांग्रेस हार का ठीकरा उनके माथे ही फोड़ देगी.

बहरहाल, कांग्रेस ने सिद्धू को पंजाब कांग्रेस की कमान सौंप कर अपनी काबिलियत सिद्ध करने का अवसर दिया है. उन्हें यह ध्यान रखना होगा कि वे बीजेपी से आयात किए गए नेता हैं जो कांग्रेस की जमीन से अभी भी पूरी तरह नहीं जुड़े हैं. ऐसे में उन्हें सत्ता की चाभी मिलने से पार्टी के कर्मठ नेताओं का मनोबल टूट सकता है. प्रत्येक राजनीतिक दल को जमीन पर कार्यरत कैडरों को बड़ी भूमिका में रखना चाहिए वर्ना पार्टी अपने जड़ से ही टूट जाती है.


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