गोरखालैंड और ठप दार्जिलिंग

गोरखालैंड बनेगा कि नहीं, यह सवाल पूछने पर दार्जिलिंग और उसके आसपास के पहाड़ी इलाकों में लोगों के पास सीधा जवाब नहीं है. हालांकि पश्चिम बंगाल के इस क्षेत्र में गोरखालैंड, लोगों के दिल से जुड़ा मामला है.

दुनिया में किसी भी जगह इतना लंबा बंध देखने को नहीं मिला जैसा दार्जिलिंग, कुरसोंग, मिरिक और कलिम्पोंग सहित गोरखालैंड की मांग करने वाले क्षेत्रों में फिलहाल जारी है. जून, जुलाई और अगस्त के बाद अब सितंबर भी चढ़ गया, लेकिन इन क्षेत्रों में जन-जीवन एकदम ठप पड़ा है.

स्कूल, दुकानें या अन्य व्यावसायिक प्रतिष्ठानों की बात क्या करें जब सभी सरकारी कार्यालय ही बंद हों. दार्जिलिंग और कलिम्पोंग जिलों के जिला मजिस्ट्रेट भारी सुरक्षा में दफ्तर जाने की औपचारिकताएं करते हैं, वरना सड़कों पर दिन में लोग दिखाई नहीं देते और रातों को किसी कुत्ते की भौंकने की आवाज़ भी सुनाई नहीं देती. घरों में चीटियां और चूहे भी नहीं दिखाई दे रहे क्योंकि कहीं भी न रसद है, न खाना पानी.

पूरे पहाड़ी क्षेत्र में या तो आपको सीआरपीएफ के सुरक्षाकर्मी दिखाई देंगे या फिर गोजमुमु यानी गोरखालैंड जनमुक्ति मोर्चा का सनसनाता खौफ. जन-साधारण से बात करने पर पता चलता है कि वह अपने गोरखा नेताओं और पश्चिम बंगाल सरकार के बीच सैंडविच हो गए हैं. एक सज्जन बताते हैं कि उन्हें पहले आशा थी कि गोरखालैंड बनेगा, लेकिन अब लग रहा है कि नहीं ऐसा नहीं हो पाएगा, क्योंकि नेता ही गद्दारी कर रहे हैं.

गोरखालैंड के प्रति न गोरखा नेता वफादार हैं और न ही इन क्षेत्रों के जनप्रतिनिधि यानी वहां के एमएलए, एमपी. यह वाकई चौंकाने वाला है कि इस गोरखा-बाहुल्य क्षेत्र के बीजेपी सांसद गत जून से जारी प्रतिरोध के बावजूद आज तक वहां झाकने नहीं गए हैं. केंद्र सरकार ने दिल्ली में कुछ गोरखा नेताओं से बातचीत तो की है लेकिन मुख्यमंत्री ममता बनर्जी के नेतृत्व में पश्चिम बंगाल सरकार ने अपना अलग ताना-बाना बुना है.

नतीजतन, जन-जीवन ऐसा प्रभावित हुआ है कि शिक्षा और व्यवसाय मिट्टी में मिल गया है, वहीं पीक सीजन में पहाड़ों में पर्यटन चौपट हो गया है. अधिकांश लेबर क्लास पलायन कर चुका है और दसवीं और बारवीं कक्षाओं के छात्र जैसे-तैसे दुबक कर आगामी बोर्ड परीक्षाओं की तैयारियां कर रहे हैं.

ये हास्यास्पद है कि राज्य सरकार कहीं भी, कभी भी अपनी पक्षधर मीडिया को बुलाकर एक-आध बैंक खुला हुआ दिखा देती है. तब, मीडिया ये भूल जाता है कि जब तीन महीनों से इंटरनेट सेवा ठप पड़ी है, तो बैंक कैसे चल रहा है?

GorkhalandSupporters

गोरखा जनमुक्ति मोर्चा के सर्वेसर्वा बिमल गुरुंग फरार हैं, लेकिन पहाड़ी क्षेत्रों में लोगों का ऐसा मानना है कि उन्हें केंद्र की बीजेपी सरकार का समर्थन है और वो पास के राज्य सिक्किम में शरण लिए हुए हैं.

उनके समर्थकों की रोज़ी रोटी उनकी पार्टी गोजमुमु के दफ्तरों से चल रही है जहां पैसे और रसद दोनों ही वितरित होते हैं. राज्य की सत्ताधारी तृणमूल कांग्रेस और पहाड़ी क्षेत्रों में अपना वजूद ढूंढते जन आंदोलन पार्टी के कार्यकर्ता यह नहीं समझ पा रहे हैं कि भगवान भरोसे यह सब कुछ, कब तक चलता रहेगा?

बिमल गुरुंग और उनके खुखरी-धारी यह बता रहे हैं कि ममता बनर्जी बंगाल के सभी स्कूलों में बंगला भाषा अनिवार्य कर रही हैं. यानी दार्जिलिंग और पहाड़ी इलाकों में भी बंगाली अनिवार्य हो जाएगी, परंतु लोगों को सच नहीं बताया जा रहा कि वास्तव में बंगला भाषा कंपल्सरी नहीं बल्कि ऑप्शनल रखी जाएगी.

पहले भी पश्चिम बंगाल के नेपाली भाषी-बाहुल्य दार्जिलिंग में गोरखालैंड क्षेत्रीय प्रशासन की स्थापना के लिए केंद्र सरकार, पश्चिम बंगाल सरकार और गोरखा जनमुक्ति मोर्चा के बीच त्रिपक्षीय समझौते हुए हैं

इसके पीछे ये राजनीति है कि गोजमुमु अध्यक्ष बिमल गुरुंग को अपनी कुर्सी हिलती हुई दिख रही है और इसलिए वह नेपाली कार्ड खेल रहे हैं कि नेपाली भाषा को समाप्त कर बंगाल सरकार उनपर बंगला भाषा थोप रही है.     

बिमल गुरुंग अब तक तो अपनी जेबें भर रहे थे लेकिन जैसे ही उनके द्वारा फाइनेंसियल बंगलिंग यानी जीटीए (गोरखालैंड क्षेत्रीय प्रशासन) के अकाउंट में पैसे का हेर-फेर उजागर होने लगा, उन्होंने जनता का मुख और रुख दोनों ही बदल दिया.

अगर उनके घोटाले उजागर हो जाते तो पहाड़ी इलाकों के सारे चुनाव में उनका मोर्चा तो हारता ही, साथ में उनका अपना वजूद भी समाप्त हो जाता. ऐसे में बैकफुट जाने के बजाए गोरखालैंड बनाने की मुहिम तेज़ कर उन्होंने बंध का ऐलान कर दिया.

उनके कट्टर समर्थक गोरखालैंड के आलावा कुछ भी सुनने को तैयार नहीं है, कुछ भी मानने को तैयार नहीं हैं. वे कहते हैं गोरखालैंड लेकर ही रहेंगे. अस्सी के दशक की शुरुआत में जनता पार्टी नेता मोरारजी देसाई, कांग्रेस नेता इंदिरा गांधी और कम्युनिस्ट नेता ज्योति बसु ने अगर समझदारी दिखाई होती तो गोरखालैंड का मुद्दा कब का समाप्त हो गया होता.

अब गोरखालैंड नेशनल लिबरेशन फ्रंट नेता सुभाष घेसिंग के समय मचाया गया उत्पात कौन भूल सकता है? और आज के गोरखा नेता तो 2014 के लोक सभा चुनावों के दौरान भारतीय जनता पार्टी नेता नरेन्द्र मोदी के वादों को तो बिलकुल नहीं भूल सकते, जब उन्होंने अलग राज्य गोरखालैंड का वायदा किया था.

न जाने कब तक दार्जिलिंग और उसके आसपास के क्षेत्रों में कितने और हेरिटेज साइट्स तबाह होंगे, कितने ही और लोग मारे जाएंगे, और न जाने कितनी सरकारी संपत्ति का नुकसान होता रहेगा. न जाने कब तक यह बंध जारी रहेगा.


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