महाराष्ट्र, मध्य प्रदेश, उत्तर प्रदेश, हरियाणा तथा गुजरात के हाल के किसान आंदोलनों को देखकर लगता है देश की राजनीति के एजेंडे में अब खेती और किसानी कहीं नहीं. तो क्या सरकारी तंत्र का उद्देश्य यह है कि किसान ऐसी हालत में पहुंच जाएं कि वो खेती छोड़ दें और दिहाड़ी मज़दूर बनने शहरों में आ जाएं?
इसी गर्मी के मौसम में कृषि संकट और इससे जुड़े राहत पैकेज को लेकर तमिलनाडु के कुछ किसान दिल्ली के जंतरमंतर पर धरने पर बैठे रहे. इस दौरान अपने विरोध की ओर सरकार का ध्यान खींचने के लिए उन किसानों ने कई प्रतीकात्मक चीजों का सहारा लिया.
लेकिन, आख़िरकार राजधानी दिल्ली के जंतर मंतर में बैठे वे किसान अपना बोरिया बिस्तर लेकर अपने घर चले गए. वे भी इसी देश के नागरिक हैं, यह सरकार ने नहीं समझा. किसान यह सोचकर आए थे कि उन्हें जो मिलेगा, लड़कर मिलेगा. कड़ी धूप में नग्न अवस्था में बैठे किसानों ने साहस तो दिखाया लेकिन व्यवस्था ने उन्हें टिकने नहीं दिया.
सच तो यह है कि किसानों के जीवट वाले आंदोलन से सरकार की घबराहट बढ़ने लगी थी. इसका सबसे बड़ा संकेत था कि सोशल मीडिया में सरकार समर्थकों की तरफ से अचानक किसानों की आलोचना तेज़ हो गई थी. किसान विरोधी लोग और सरकार के अंध समर्थक ऐसे ताने मार रहे थे जिनमें सिर्फ कुतर्क था.
मतलब साफ था कि सरकार में अकुलाहट बढ़ गई थी और साथ ही अंध समर्थकों में बैचेनी भी बढ़ गई थी. एक सज्जन ने तो किसानों को इस तरह आंका – “मुझे तो ये पता चला है कि इन्हें बाकायदा ट्रेनिंग दी गई. इनमें से सभी किसान नहीं थे. इनका मुखिया प्रोफेशनल प्रोटेस्टर था. जो हरकतें इन्होंने की हैं, वो तो सच में कोई आम किसान नहीं करता, जैसे मूत्रपान, सांप लपेटना, चूहे मुंह में दबाना. यह सब प्रायोजित था.”
सरकार समर्थकों के ऐसे कटु वचन और सरकार द्वारा 44 डिग्री तापमान में आंदोलन करते किसानों की अनदेखी करने का तरीका ठीक नहीं था. किसी भी सरकार पर इतना गुरूर नहीं जंचता. इतिहास गवाह है कि अंग्रेजों के खिलाफ पहला मोर्चा किसानों ने ही खोला था. ये खूब लड़े हैं, अंग्रेजों से भी.
अगर ये दक्षिण से दिल्ली आए तो कम से कम केंद्रीय कृषि मंत्री को गर्व होना चाहिए था अपने किसानों से मिलकर. ये तमिलनाडु से ही तो आए थे, अमेरिका से नहीं. वरिष्ठ आर्थिक विश्लेषक देवेंद्र शर्मा के अनुसार, जिस देश का किसान नंगा हो वो सुपर पावर कैसे बनेगा? इन किसानों की मांगें अभी पूरी नहीं हुई हैं लेकिन इन लोगों ने वो कर दिखाया जो किसान आंदोलन में बीते 30-40 सालों में देखने को नहीं मिला है.