फिल्म समीक्षा: वक़्त

“वक़्त इंसान से क्या, कब कैसे करवाए ये नहीं कहा जा सकता लाला जी. कभी-कभी रूपये गठरी में बंधे रह जाते हैं और इंसान भीख मांगता फिरता है.” यश चोपड़ा द्वारा निर्देशित 1965  में प्रदर्शित फिल्म वक़्त का यह संवाद जीवन का सत्य है, जो वक़्त की अस्थिरता और संजीदगी को बखूबी दर्शाता है.

बलराज साहनी, सुनील दत्त, राजकुमार, शशि कपूर, साधना, शर्मीला टैगोर अभिनीत यह सिनेमा आपको लेकर चलेगा एक ऐसे समृद्ध परिवार की ज़िन्दगी में जिसके मुखिया हैं लाला केदारनाथ (बलराज साहनी), जो अपनी बीवी लक्ष्मी (अचल सहदेव) एवं तीन लड़के राजू, बबलू और मुन्ना के साथ एक सुखद जीवन जी रहे होते हैं.

वक़्त फिल्म में अचानक आए भूकंप से एक हंसता खेलता परिवार बिखर जाता है

जहां राजू बड़ा होकर राजा (राजकुमार) बन जाता है जो एक बड़ा चोर है, वहीं बबलू अब रवि है जिसे खन्ना परिवार, जिनकी सिर्फ एक बेटी रेनू (शर्मीला टैगोर) है, गोद ले लेता है. राजा एवं रवि जहां मुंबई में रहते हैं वहीं लक्ष्मी और उसका छोटा बेटा विजय (शशि  कपूर) दिल्ली में रहते है जहां विजय की मुलाकात मीना से कॉलेज में हो जाती है जो जल्द ही प्रेम में तब्दील हो जाती है. वृद्ध केदारनाथ अपनी बीवी को ढूंढ़ते-ढूंढते मुंबई पहुंच जाता है.

अख्तर मिर्ज़ा की कहानी पर आधारित यह सिनेमा आपको रूबरू कराएगा कि कैसे इस परिवार को तकदीर मिलाती है.

धरम चोपड़ा के छायांकन से संजोया हुआ यह सिनेमा आपको विकसित हो रहे मुंबई से रूबरू कराएगा जो शायद ही आपने कहीं देखा हो. अंत में सारे परिवार को एकजुट करने वाला कोर्ट का दृश्य आपको उस समय के कोर्ट ड्रामा से परिचित कराएगा जो आज से काफ़ी विपरीत है.

क्यों न परिवार के साथ कुछ ‘वक़्त’ समय की मह्त्वपूर्णता को दर्शाती इस फिल्म को देख कर व्यतीत किया जाए? रवि शंकर शर्मा के सदाबहार गीत ‘ऐ मेरी जोहराजबीं, तुझे मालूम नहीं’, ‘कौन आया कि निगाहों में चमक जाग उठी’ जैसे गीतों का लुत्फ़ उठाने के लिए ज़रूर देखें ‘वक़्त’.


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