दूसरा कोई बासु चटर्जी नहीं

कुछ फ़िल्मों के प्रशंसक होते हैं, कुछ दीवाने, कुछ फ़िल्मों को लेकर जुनूनी तो कुछ की ज़िंदगी ही फ़िल्में हो जाती हैं. इन सबसे इतर होते हैं वे जो आपको अपनी ज़िंदगी में हर दिन एक फ़िल्म की झलक दिखा दें, कभी हल्के फुल्के अंदाज़ में तो कभी हथौड़े की चोट से. फ़िल्मकार बासु चटर्जी, जिन्हें दुनिया प्यार से बासु दा कहती है, इसी आखिरी खांचे में फिट होते हैं.

बासु चटर्जी

बासु दा ने एक इंटरव्यू में कहा था ‘हिंदी फ़िल्मों के हीरो की अविश्वसनीय मर्दानगी मेरी समझ के परे है. एक आम आदमी, आम आदमी होता है.’

सचमुच आम आदमी न तो उतना सामर्थ्यवान होता है और न ही उतना जुगाडू जितना कि पर्दे का हीरो.

आम आदमी की कहानी को आम अंदाज़ में परोसकर भी ख़ास जगह बनाई जा सकती है, इसी बात को गांठकर बासु दा अपनी फिल्मों के विषय चुनते गए.

एक आदमी के चश्मे से देखते हुए उसे पर्दे पर परोसते गए और ऐसा घर बनाया दिलों में कि दिल ही उनका हो गया.       

बहुत सी फ़िल्मों का इंट्रो कार्टून से होता है

एक रेलवे मुलाज़िम के बेटे बासु दा का जन्म अजमेर में हुआ तो किशोरावस्था बीता मथुरा में. यहीं राजेंद्र यादव और शैलेन्द्र जैसे रचनाकारों से दोस्ती हुई.

फ़िल्में देखने के शौकीन थे लेकिन मन में कहीं न कहीं कहानी को नए अंदाज में परोसने की ख्वाहिश भी थी.

मथुरा से स्नातक के बाद मुंबई पहुंचे और लाइब्रेरियन की नौकरी मिल गई और पुराना शौक कुलबुलाने लगा.

किस्मत ने ब्लिट्ज पत्रिका के संपादक से मिला दिया और वहां पॉलिटिकल कार्टूनिस्ट हो गए.

यही वजह है कि बासु दा की बहुत सी फिल्मों का इंट्रो कार्टून से होता है और फिल्म शुरू होने से पहले ही यह फील दे देती है कि अगले दो-ढ़ाई घंटे मुस्कुराते, गुदगुदाते बीतने वाले हैं.

प्रकृति हर इंसान के लिए एक रोल तय करती है

बासु दा मध्यवर्गीय आकांक्षाओं, दुविधाओं और सपनों को रूपहले पर्दे पर उतारने को ही फ़िल्मों में आए थे. इसलिए कुदरत ने समय आने पर इसका रास्ता तैयार किया.

उनके पुराने साथी और बॉलीवुड के स्थापित गीतकार शैलेंद्र ने फणीश्वर नाथ रेणु की कहानी मारे गए गुलफाम पर तीसरी कसम फ़िल्म बनाने का फैसला किया.

मित्र शैलेंद्र के पास बासु दा फ़िल्म में निर्देशन का गुर सीखने आए तो उन्होंने उस फ़िल्म के निर्देशक से मिलने को कहा.

फिर तो बासु चटर्जी को फिल्मकारी का पहला गुर सिखाने को एक और ‘बासु’ मिले- तीसरी कसम के निर्देशक बासु भट्टाचार्या.

तीसरी कसम के बाद वे सरस्वती चंद्र में सहायक निर्देशक बने और फिर लगा, बहुत हो लिया. अपने अंदाज में कहनी है फ़िल्म की कहानी.    

मध्यवर्गीय परिवारों की परवरिश, उसकी सोच, उसके चरित्रों और आशा-निराशा को सहज स्वाभाविक तरीके से परोसने का सिलसिला शुरू हुआ अपने पुराने मित्र राजेंद्र यादव के लिखे उपन्यास सारा आकाश पर आधारित उसी नाम से बनी फ़िल्म से.

एक नवोदित निर्देशक की फ़िल्म सुपरहिट रही

आगरा का एक संयुक्त परिवार शादी के बाद आए एक नए जोड़े का स्वागत करता है. शादी के बंधन में बंधने वाले दंपती घरेलू ज़िंदगी के लिए न परिपक्व थे, न तैयार. छोटी-छोटी बातों पर शुरू हुई तकरार अंततः शादी को लील जाती है. फ़िल्म की पटकथा बासु दा ने ही लिखी थी और इसके लिए उन्हें सर्वश्रेष्ठ पटकथा लेखक का फ़िल्मफेयर पुरस्कार मिला था. सारा आकाश का एक भी शॉट स्टूडियो में नहीं लिया गया था. पूरी फ़िल्म रियल लोकेशन में शूट हुई इसलिए बॉलीवुड के चकाचौंध के बीच एक नई ताज़गी का अहसास हुआ.

हल्के मूड में मध्यमवर्ग की अपनी कहानियां  

उनकी फ़िल्मों में शादी और प्रेम संबंधों पर खूब जोर रहा. उनकी फ़िल्मों के नायक और नायिका मध्यवर्गीय समाज और परिवार में आज भी दिखाई देंगे.

रजनीगंधा को ही ले लें. राजेंद्र यादव के उपन्यास पर सारा आकाश बनाने के बाद उन्होंने उनकी पत्नी मन्नू भंडारी की एक लघुकथा यही सच है पर आधारित फिल्म रजनीगंधा बनाई.

एक युवती जिसे स्टूडेंट लीडर से प्रेम तो है लेकिन अपने प्रेमी को वह क्रांतिकारी बनते नहीं देखना चाहती. उसे तो चाहिए एक ऐसा पति जो सुबह दफ्तर जाए और शाम में घर पर आकर ढेर सारी बातें करें, क्रांति नहीं. अपने प्रेमी से संबंध तोड़ने के कुछ वर्षों बाद उसे एक सरकारी बाबू मिलता है जो टिपिकल सरकारी मुलाजिम कैरेक्टर है. दिल का अच्छा है लेकिन दिन रात प्रमोशन पाने की धुन में रहता है. संयोग से युवती के जीवन में उसका पुराना प्रेमी एक बार फिर टकराता है. उसकी खूब मदद करता है और युवती का मन प्रेम की सीमा रेखा तोड़ने को करता है. फिर उसे अहसास होता है सपनों का. एक ऐसी कहानी है जो हर मध्यवर्गीय शख्स को कहीं न कहीं अपनी कहानी लगेगी.

अपने प्रेम को पाने के लिए एक लव गुरू से पेंच पैंतरे तक सीखने को तैयार युवक की कहानी को दर्शाती कॉमेडी फ़िल्म छोटी सी बात हो या फिर चितचोर जिसमें गलतफहमी में एक परिवार किसी और को अपना भावी दामाद समझकर उसकी खातिरदारी करता है… अपनी बेटी के लिए उसे दुनिया का सबसे योग्य वर पाता है लेकिन सच खुलने पर उसके खिलाफ हो जाता है. या फिर खट्टा मीठा जिसमें चार बच्चों के अकेले पिता को अपने बच्चों की परवरिश के लिए एक मां की तलाश है और उसे एक विधवा औरत मिलती है जिसके पहले से ही तीन बच्चे होते हैं. दोनों के बच्चों की उठापटक पर बुनी जाती है एक जबरदस्त फ़िल्म.

मुंबई के कैथोलिक लोगों के जीवन की कहानी बताती बातों-बातों में हो या फिर अधेड़ उम्र में पहुंचकर भी कुछ रोमांचक करने की चाह रखने वालों की कहानी पर आधारित 1982 में आई शौकीन. बासु दा की फिल्में तीस-तीस, चालीस-चालीस साल बीतने के बाद भी ताज़ा हवा के झोंके की तरह लगती हैं, रोमांचित करती हैं. चमेली की शादी जैसी कॉमेडी फ़िल्म में वह अपने गुरु हृषिकेश मुखर्जी के समकक्ष हो जाते हैं. 

बासु दा ने समाज को गहराई से परखा है. उसके रस, उसके लगाव और नोक-झोंक को चुटीलेपन से परोसा है तो समाज की काली सच्चाई को भी पर्दे पर उतारने का जोखिम लिया है और यहां भी वह किसी से उन्नीस नहीं दिखते.

एक रुका हुआ फैसला आम इंसान के उधेड़बुन को थ्रिलर के रूप में प्रस्तुत करती है जो आपको चौंकाती है.

उनकी फ़िल्म त्रियाचरित्र समाज के एक ऐसे यथार्थ और पाखंड से परिचित करा देती है जो आपको बेचैन कर देगी. पति की गैर-मौजूदगी में एक लड़की का ससुर ही उसका रेप करता है. और जब इंसाफ की बारी आती है तो समाज पीड़िता को ही गुनाहगार साबित करने पर उतारू हो जाता है. पीड़िता पर ‘त्रियाचरित्र’ का तमगा चस्पां कर देता है.

उसी तरह 1989 में आई कमला की मौत आधुनिक भारत में रिश्तों, प्रेम संबंधों और शादी से पहले शारीरिक संबंध बनाने जैसे मुद्दों को बहुत ईमानदारी से रेखांकित करती है. इस फ़िल्म के लिए उन्हें सर्वश्रेष्ठ पटकथा लेखक के फिल्मफेयर अवॉर्ड से सम्मानित किया गया था.

बासु चटर्जी फ़िल्म निर्माण के एक संतुलित पुरोधा हैं. वह फ़िल्मों को न बहुत व्यवसायिक बनाने को आमादा दिखते हैं न ही उनमें आर्ट के प्रति दुराग्रह है. यह संतुलन उन्हें फ़िल्म निर्माण में मील का एक दुर्लभ पत्थर बना देता है. दूसरा कोई बासु चटर्जी नहीं हो सकता.  

बासु चटर्जी

भारत बोलेगा: जानकारी भी, समझदारी भी