कौन हैं आपके फेवरेट टीचर?

बात उस समय कि है जब मेरी बेटी ने स्कूल जाना शुरू ही किया था. मैं घर में बैठी सोचती कि क्या करूँ? तभी एक दिन अपनी ही कालोनी में एक छोटे से प्ले-वे स्कूल के बारे में पता चला. यह सिर्फ चार घंटों का स्कूल था. शुरू में जरा हिचक हुई पर धीरे धीरे मुझे वहाँ काफी अच्छा लगने लगा.

मैंने कभी सोचा भी नहीं था कि अचानक ही मैं नन्हें मुन्नों की टीचर बन जाउंगी. इस प्ले-वे में ही मुझे नन्हीं परी सी दिखने वाली एक बच्ची मिली ‘आर्या’. वह तब दो वर्ष की थी. जिस दिन मैंने प्ले-वे ज्वाइन किया उसी दिन आर्या ने भी वहां दाखिला लिया था.

हम दोनों ही एक नए परिवेश में थे, बिलकुल अनजान से. इसी कारण शायद हम दोनों एक दूसरे के बेहतर दोस्त बन गए. मै के.जी. कक्षा में पढाती और आर्या का दाखिला प्ले-वे में हुआ था. पर वह हरदम मेरी ही कक्षा में आकर बैठ जाती.

मैं उसकी फेवरेट टीचर बन गयी और आर्या मेरी दुलारी बच्ची. वो खाना मेरे पास ही खाती और के.जी. कक्षा की सारी कविताएँ, टेबल रट गई थी. हमारी नजदीकियां बढ़ी और आर्या ने अपने जन्मदिन पर मुझे घर बुलाया. मैं आर्या को मना नहीं कर पाई.

परन्तु उस शाम मुझे आर्या के घर पहुँचने में जरा देर क्या हो गई, उसने न तो केक काटा और न ही किसी को कुछ खाने-पीने दिया. और मेरे पहुँचते ही सब बोल उठे — लो तुम्हारी मैम आ गई. इतना सुनते ही आर्या दरवाज़े की ओर लपकी और मेरी गोद में चढते ही बोल पड़ी, “आप मेरे लिए क्या लाई हो?” सब हंस पड़े. आर्या ने फिर मेरे साथ केक काटा.

वह अपने दादा–दादी, नाना–नानी, माता–पिता सब को छोड़ मुझमे ही लगी रही. मन मे एक विचार सा आया — क्या खून के रिश्तों से ज्यादा ममता और प्यार का रिश्ता होता है?

आज जब भी मैं अपने कुछ खास बच्चों के बारे में सोचती हूँ तो मुझे आर्या की याद आती है. नन्हीं-सी आर्या मुझे अपना बना कर और अपनेपन का पाठ पढ़ा कर न जाने कहाँ चली गई.


भारत बोलेगा: जानकारी भी, समझदारी भी