भारत में प्लेब्वाय क्यों नहीं?

प्लेब्वाय मैगज़ीन पिछले 63 वर्षों से अपने ख़ास वर्ग के पाठक के लिए मनोरंजन का स्रोत रही है लेकिन अब इसे इंटरनेट से दो-दो हाथ करना पड़ रहा है.

ह्यू हेफ्नर ने 1953 में इस पत्रिका को स्थापित किया था और तब से उन्होंने पीछे मुड़कर नहीं देखा. और अब उनके बेटे कूपर हेफनर मैगज़ीन के चीफ क्रिएटिव ऑफिसर की हैसियत से इस कोशिश में हैं कि इस डिजिटल युग में इसे फिर से कैसे लोकप्रिय बनाया जा सके.

पत्रिका पर नौजवान पीढ़ी को गुमराह करने, महिलाओं के शोषण के आरोप भी लगते रहे हैं. भारत समेत जिन देशों में पत्रिका के छपने पर बैन है वहां भी प्लेब्वाय के कपड़े और परफ़्यूम धड़ल्ले से बिकते हैं.

भारतीय एक्टर शर्लिन चोपड़ा इस पत्रिका के लिए कवर शूट कर चुकी हैं. उनके अनुसार प्लेब्वाय में खूबसूरत दिखना आसान काम नहीं है.

प्लेब्वाय मैगज़ीन वयस्कों को प्रिंट कंटेंट प्रदान करने के लिए मशहूर थी लेकिन डिजिटल युग में इंटरनेट के हर नुक्कड़ पर हर तरह का कंटेंट मौजूद है. यही वजह है कि प्लेबॉय मैगज़ीन की लोकप्रियता नगन्य हो गई है. जहां 1970 में इसके 55 लाख पाठक थे वहीं आज कुछ सात लाख रह गए हैं.

कुछ अलग करने की कोशिश में गुजरे साल में ये निर्णय लिया गया था कि प्लेब्वाय मैगज़ीन ऐसा कंटेंट प्रकाशित नहीं करेगी जो हर जगह उपलब्ध हो. लेकिन इससे मैगज़ीन के फायदे में कोई ख़ास बढ़ोतरी नहीं हुई. बकौल हेफनर , यह गलत निर्णय साबित हुआ है.

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ह्यू हैफनर

मैगज़ीन के निदेशक इसे पुराने अवतार में ही फिर से बाज़ार में उतार रहे हैं. प्लेब्वाय ने अपनी टैग लाइन ‘एंटरटेनमेंट फॉर मेन’ को भी बदल लिया है. फेसबुक और ट्विटर पर भी नए हैशटैग से कैंपेन शुरू किया गया है.

प्लेब्वाय का पहला अंक दिसंबर 1953 में प्रकाशित हुआ था. पहला कवर मर्लिन मुनरो की मुस्कान ओढ़े हुए था.

प्लेब्वाय के संस्थापक ह्यू हैफनर ने अपनी मां से हज़ार डॉलर उधार लेकर इस पत्रिका की शुरूआत की थी और पहले संपादकीय में लिखा था, ”ये पत्रिका है 18 से 80 की उम्र के मर्दों के लिए.”

हेफनर 90 साल की उम्र में भी अपनी रंगीन ज़िन्दगी की वजह से अक्सर अख़बारों में होते हैं. उनके मिजाज़ का अंदाज़ा आपको इस बात से भी लग जाएगा कि अपनी मौत के बाद अपनी कब्र के लिए जो जगह उन्होंने खरीदी है, वो मर्लिन मुनरो की कब्र के ठीक बगल में है.


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