पढ़ने के लिए क्या खास है भारत में?

रूसियों के पढ़ने की तो बात ही क्या. इनके जैसे पढ़ाकू दुनिया में नहीं मिलेंगे. मॉस्को की मेट्रो ट्रेन में 90-95 प्रतिशत लोग बैठ कर पढ़ते हुए मिलेंगे. वहां किताब के दुकानों की भरमार है. लोग खूब किताबें ख़रीदते हैं, गिफ़्ट करते हैं. लेकिन एक समस्या है, सारी किताबें सिर्फ रूसी भाषा में हैं. शायद कहीं किसी बड़ी दुकान में दो-चार अंग्रेजी पुस्तक मिल जाए. ये दुनिया भर की किताबों का रूसी अनुवाद करके बेचते हैं, इसलिए हर विषय पर किताबों की भरमार है.

यही बात टीवी पर लागू होती है. वहां केवल रूसी भाषा में ही प्रोग्राम या फिल्म प्रसारित होते हैं. इसलिए दुनिया भर की फिल्मों का रूसी अनुवाद बाज़ार में उपलब्ध है. हमारे भारत के बाज़ार में आप सिर्फ हॉलिवुड की, वो भी कुछ चुनिंदा फिल्में ही खरीद सकते हैं, जिनमें से दो-चार प्रसिद्ध फिल्में ही हिंदी में मिलेंगी.

भारत में किताबों का भी यही हाल है. सिर्फ चुनिंदा अंग्रेजी किताबें ही हिन्दी में मिल सकती हैं. जबकि रूस में दुनिया भर की किताबों और फिल्मों की भरमार है और वो भी रूसी में. इनके पढ़ाकू होने का ये भी बहुत बड़ा कारण है.

अंग्रेजी शिक्षा भारत में

अपनी भाषा वे सरलता से सीख लेते हैं. भारत में इसका उल्टा होता है. बच्चों को मार-मारकर विदेशी भाषा रटाई जाती है. जितना समय वे अन्य पांच विषयों को सिखने पर लगाते हैं, उससे ज्यादा उन्हें अकेली अंग्रेजी पर लगाना होता है. फिर भी, सबसे ज्यादा बच्चे अगर किसी विषय में फेल होते हैं तो अंग्रेजी में होते हैं. यही कारण है कि बी.ए. तक पहुंचते-पहुंचते 15 करोड़ में से 14 करोड़ 40 लाख बच्चे पढ़ाई से मुंह मोड़ लेते हैं.

सिर्फ 4-5 प्रतिशत बच्चे कॉलेज तक पहुंच पाते हैं. हमारे देश के पिछड़ेपन का एक मूल कारण यह भी है कि हमारे यहां सुशिक्षित लोगों की संख्या 15 प्रतिशत भी नहीं है. साक्षर लोग यानी अपने हस्ताक्षर कर सकने वाले लोग 70 प्रतिशत हो सकते हैं, लेकिन क्या साक्षरों को सुशिक्षित कह सकते हैं? दूसरे शब्दों में अंग्रेजी के कारण बच्चे शिक्षा से ही पिंड छुड़ा लेते हैं. अंग्रेजी को शिक्षा के प्रसार में बाधा बनने से रोकना जरूरी है.


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