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घूंघट तो ज़रूरी है ना

रोटी बेलते-बेलते उसने कहा – “भाभी, ये जो आपने पहना है उसे पिलाजो बोलते हैं ना?” मैंने कहा, हां. फिर, वह मुस्कुरा कर बोली, “मैं अपनी मां के घर मुंबई जा रही हूं. वहां जाकर मैं भी पिलाजो पहनूंगी.”

मैंने कहा, “इसे तो तुम यहां भी पहन सकती हो. उसके लिए मुंबई ही क्यों?”

इसके जवाब में उसने कहा – “यहां मुझे बिना घूंघट (ghoonghat) घर से निकलने की इजाज़त नहीं है, पिलाजो तो दूर की बात है. मेरी मां उम्रदार है. उन्हें कुछ समझ नहीं, इसलिए वहां उनके पास मुंबई में पहनूंगी.”

वो मेरे साथ 15 साल से है और इतने सालों में कभी भी बिना घूंघट के नहीं दिखी है. कहती है, “मेरे पति को पसंद नहीं है, क्या करूं. हम अपने जेठ के साथ रहते हैं, तो हर समय घूंघट ज़रूरी है.”

मैंने जब भी कहा कि घर से बाहर तो घूंघट उतार सकती हो, तो उसका कहना होता है कि “बाहर मेरे ससुर के कई दोस्त मिल जातें हैं. इसलिए बाहर भी घूंघट ज़रूरी है.”  

ये कहानी है मेरे घर में कामकाज संभालने वाली कामगार की. उसके बिना मेरा दिन नहीं गुज़रता. एक चाय का प्याला भी सुबह शाम वो ही मुझे देती है. और साथ पीती भी है, नहीं तो उसका भी दिन नहीं गुज़रता.

यहां वहां की सारी शिकायतें भी वह मुझसे आकर रोज़ सुनाती है, चाहे मैं ध्यान दूं या नहीं.

कुछ दिनों से वह परेशान सी थी. मैंने पूछा तो बताया कि उसकी बेटी ने दसवीं का इम्तेहान 67 प्रतिशत से पास कर लिया है. “अब नए स्कूल में एडमिशन कराया है, मोड़ पर ही सुशीला कालेज है जहां वह जाएगी. अब समस्या है कि पुराना स्कूल ट्रान्सफर सर्टिफिकेट देने के 300 रूपये मांग रहा है और वह भी कुछ महीनों बाद मिलेगा. अब क्या करूं भाभी?”

मैंने फिर उसे अगले दिन आने के लिए कह अपना टीवी चला दिया. उसकी बातें कुछ अलग नहीं थीं. न जाने कितने लोगों को ऐसी छोटी-छोटी परेशानियों से हर दिन गुजरना पड़ता है.

अगले दिन जब वह आई तो मैंने उसके हाथ में एक पैकेट थमाया.

उसने पूछा – “मेरे लिए है? थैंक्यू भाभी.”

उसने पैकेट खोला तो आंखों से आंसू निकल आए. उसमें उसके लिए दो ‘पिलाजो’ (plazo) थे. हाथ में उन्हें उठा कर वह पूरे कमरे में गोल-गोल ख़ुशी से घूमने लगी.

और फिर पूछ बैठी – घूंघट के साथ ‘पिलाजो’ बुरा तो नहीं लगेगा न?”  


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