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फिल्म समीक्षा: परिणीता

सन 1953 में, प्यार-दोस्ती-आपसदारी जैसे अनेक रिश्तों को दर्शाती एक फिल्म आई और बन गई हिन्दी सिनेमा के इतिहास के कुछ स्वर्णिम फिल्मों में से एक – हम बात कर रहे हैं बिमल रॉय द्वारा निर्देशित परिणीता (Parinita) की.

शरत चंद्र चट्टोपाध्याय के उपन्यास पर आधारित यह फिल्म अपने सर्वश्रेष्ठ अभिनय और रोचक पटकथा के लिए आज तक याद की जाती है.

अशोक कुमार एवं मीना कुमारी द्वारा अभिनीत यह सिनेमा कहानी है दो पड़ोसी परिवारों की जिसके मुखिया नबीन रॉय (बद्री प्रसाद) और गुरचरण बाबू हैं. गुरचरण की भतीजी ललिता है जो नबीन रॉय के परिवार में उनकी बीवी और बेटे शेखर (अशोक कुमार) दोनों के करीब है.

शेखर एक अमीर लड़का है जो ललिता की मदद के बिना कोई भी काम नहीं कर पाता. वह उसे अपनी अच्छी मित्र मानता है और उसे लेकर काफी स्वामिगत है. गुरचरण बाबू नबीन से अपने बेटी की शादी के लिए उधार ले लेते हैं, जो वह नबीन रॉय के जल्द मांगने पर चुकाने में असक्षम होते हैं.

ऐसे समय उनकी मदद करते है गिरीं, जो ललिता की दोस्त चारु के अंकल हैं. उधर, शेखर ललिता को पहले ही पूर्णमासी की रात में माला पहनाकर अपनी परिणीता बना चुका है.

कमल बोस के छायांकन से सजी हुई इस कहानी में मोड़ तब आता है जब गिरीं की वजह से शेखर और ललिता में गलतफ़हमी हो जाती है.

इस फिल्म को और ख़ास बनाता हैं अरुण मुख़र्जी का संगीत जो आपको एकदम अलग अंदाज़ के गानों से परिचित कराएगा.

जिस अंदाज़ से बिमल रॉय ने औरतों को देखने का नजरिया और स्वाभिमानी महिला का किरदार दिखाया है वह सराहनीय है.

हृषिकेश मुखर्जी के संकलन से संजोया हुआ यह सिनेमा आपको कलकत्ता की बंगाली संस्कृति से परिचित कराएगा. रिश्तों की आपसी अनबन को दिखाती इस फिल्म में आगे क्या होता है, जानने के लिए देखिए परिणीता.


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