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फिल्म रिव्यु: चलती का नाम गाड़ी

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बाबू समझो इशारे, हौरन पुकारे, पम, पम, पम, यहां चलती को गाड़ी कहते है प्यारे, पम पम पम – ये गाना गाते हुए तीन भाई मुंबई की सड़कों पर घूम रहे होते हैं. शायद ये गाना उन चुनिंदा फिल्मों में से है जिसमें असल के भाइयों ने हंसी मजाक वाले रिश्ते को परदे पर दिखाया है. 1958 में रिलीज हुई सत्येन बोस द्वारा निर्देशित चलती का नाम गाड़ी (Chalti Ka Naam Gaadi) उम्दा फिल्मों में से एक है.

अशोक कुमार, किशोर कुमार, अनूप कुमार, मधुबाला, हेलेन द्वारा अभिनीत यह हास्यप्रधान सिनेमा कहानी है तीन भाइयों की. ब्रजमोहन शर्मा (अशोक कुमार), मनमोहन शर्मा (किशोर कुमार) और जगमोहन शर्मा (अनूप कुमार) मुंबई शहर में अपना कार गेराज चलाते हैं.

ब्रजमोहन को प्यार में मिले धोखे के कारण लड़कियों से ख़ास नफरत है. वो इस बात का ध्यान रखता है कि गेराज में कोई भी लड़की न आए, यहां तक कि उसके भाई किसी लड़की की तस्वीर तक भी गेराज में न लगाएं.

ऐसे में एक दिन जब बारिश हो रही होती है तो रेणु (मधुबाला) की गाड़ी बृजमोहन के गेराज के बाहर खराब हो जाती है, और अंदर मनमोहन सो रहा होता है. रेणु के उठाने पर वो थोड़ा झिझकता है और एक लड़की भीगी भागी सी गाना गाकर गाड़ी सही करने लगता है, जो इस जोड़ी के चुलबुले प्यार की शुरुआत होती है. जल्दी-जल्दी में रेणु अपना पर्स और मनमोहन को पांच रूपए और बारह आने मेहनताना देना भूल जाती है.

बस फिर क्या था, एस.डी. बर्मन के संगीत से पिरोया हुआ यह सिनेमा शुरू तो होता है अपने हक के पांच रूपए और बारह लेने से, पर इसमें कड़ियां जुड़ती जाती हैं, कुछ बिछड़े हुए प्यार की तो कुछ नहीं पनपे हुए प्यार की.

किशोर कुमार के हंसाने वाले नृत्य एवं भाव हों या मधुबाला की बेशकीमती मुस्कराहट, यह सिनेमा बीते समय का वो उपहार है जो कभी भी पुराना नहीं होगा. यकीन नहीं आए तो इस सिनेमा को देखकर खुद निर्णय लीजिए.


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