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किस्मत के सहारे चलती ज़िन्दगी

मौत कब आएगी इसका ठिकाना नहीं, भारत में तो आदमी जब तक जिंदा है किस्मत के सहारे ही है. पिछले कुछ दिनों में हुई घटनाओं से मेरा किस्मत पर भरोसा और बढ़ गया है, खास तौर पर ज़िन्दगी के बारे में – भारत में जितने दिन लोग सांस लेते हैं किस्मत से ही लेते हैं.

पिछले दिनों दो वाल्वो बस में आग लग गई, दोनों घटनाओं में सोते हुए पचास से ज्यादा लोगों की जलकर मौत हो गई. दोनों बार ड्राइवर की गलती को जिम्मेदार बताया जा रहा है, लेकिन घटिया और खतरनाक सडकें जो चलता फिरता कब्रगाह हैं जो ज्यादा जिम्मेदार हैं उसका क्या…!

स्पीड ब्रेकर से उछलकर बाइक सवार की मौत के कितने मामले देश के हर छोटे बड़े शहरों में दिखते हैं. ऐसा लगता है कोई देखने सुनने वाला नहीं है. लोगों ने भी इसी घटिया क्वालिटी की लाइफ के साथ जीना सीख लिया है.

सड़क सुरक्षा का इतना बुरा हाल है कि कब कहां एक्सीडेंट हो जाए मालूम नहीं. मुंबई-गोवा हाइवे पर हर तीसरे दिन दर्दनाक एक्सीडेंट सुनता हूँ, वजह भी मालूम है, सरकारों को लेकिन पता नहीं किस बात का इंतजार हो रहा है.

मुंबई-पुणे तो एक्सप्रेस वे है, लेकिन वहां भी जब तब भयानक एक्सीडेंट होते हैं. कैजुल्टी इसलिए भी ज्यादा होती है क्योंकि सामान्य से घायल आदमी के लिए भी हास्पिटल की सुविधा भारत के किसी भी हाइवे पर नहीं है.

लेकिन भारत में खतरा हर जगह है. मुंबई के घाटकोपर स्टेशन पर दो बेचारे अपनी ट्रेन का इंतजार कर रहे थे, तभी एक ट्रेन निकली और ट्रैक पर लगी आयरन प्लेट मिसाइल की तरह उड़ती हुई आई और राकेट की रफ़्तार से दोनों से टकरा गई.

उनमें से एक बेचारे का तो भेजा ही बाहर आ गया, दूसरा भी गंभीर तौर पर घायल हुआ. बताइए, कोई प्लेटफार्म पर बैठकर इस तरह के किसी खतरे के बारे में सोच भी सकता है! ऐसे उदाहरण के बाद लोग भाग्यवादी नहीं होंगे तो क्या होंगे!

किस्मत पर भरोसा नहीं करेंगे तो क्या सरकार पर करेंगे, सिस्टम पर करेंगे?


भारत बोलेगा: जानकारी भी, समझदारी भी
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