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कोरोना का पुर्जा

सब कुछ विलम्बित है. एक इंतज़ारी है. हर तरफ बेकरारी है. साहित्य, सिनेमा, किताब, फेसबुक लाइव, खुद का सामना करने से बचने के सारे जतन व्यर्थ होते जा रहे हैं.

आदमी खुद का क्या करे वह खुद ही समझ नहीं पा रहा है. अगले दस दिन निर्णायक हैं. कुछ जागरूक दोस्त अपनी नौकरियों को लेकर अब चिंतित रहने लगे हैं.

बंदी खत्म होने के बाद उन्हें फिर से काम पर बुलाया जाएगा कि नहीं, इसकी चिंता उन्हें टीवी देखते, पकौड़े खाते हुए भी उद्विग्न कर दे रही है.

वह अपनी तरफ से कितना भी पॉजिटिव सोचने की कोशिश करें, लेकिन अपनी आर्थिक सुरक्षा को लेकर आश्वस्त नहीं हो पा रहे हैं.

चाहे थाली बजा दें या फिर दीवाली ही क्यों न मना लें, कोई है जो सरकार के साथ रह कर भी उसकी पहल को लेकर सशंकित है.

बिहार के मोतिहारी से एक मित्र बता रहे थे, तीन महीने का गैस सिलिंडर जो फ्री में दिया गया है, उसके लिए पहले पैसा जमा करना होगा. बाद में वह पैसा अकाउंट में वापस आ जाएगा.

ज़िन्दगी चलते जाना है. फोटो – पार्थो प्रोतिम सरकार.

पटना से एक साथी बोले- भैया मुझे तो लग रहा है भयानक लूट-मार मचेगी बिहार में. यह जो इतनी जनता लौट कर वापस आई है, उसके लिए बिहार में रोज़गार कहां है!

पलायन के बाद लोग कम मजदूरों से काम कराने के लिए अभ्यस्त हो गए हैं. अब गेहूं की दौनी में भी उस तरह मजदूरों का इस्तेमाल नहीं होता. ज्यादातर काम मशीन से ही हो रहा है.

जो राजमिस्त्री-लेबर लौटे हैं इस विपन्न आर्थिक स्थिति में, अब कोई घर के जोड़ाई-ढलाई या पुताई का भी काम नहीं होगा जो वह किसी तरह से अपनी रोजी-रोटी जुटा पाए. और इतनी जल्दी कोई वापस भी नहीं लौट पाएगा.

तो समझिए क्या स्थिति बनने जा रही है. संकट ग्रामीण और शहरी दोनों इलाकों में एक साथ धीरे-धीरे गहराएगा.

पूर्वोत्तर से एक साथी ने चिंता जतायी कि असली खेला तो लॉक डाउन हटाने को लेकर है. वर्ग संघर्ष और मध्यवर्ग का विरोधाभास स्पष्ट दिख रहा है.

सरकार लॉकडाउन और कोरोना संकट को लेकर की गई लापरवाहियों के कारण धर्म संकट में फंस गई है. उसके सामने यक्ष प्रश्न है कि सीमित संसाधनों का इस्तेमाल कर किसे बचाया जाए और किसे इस आपात घड़ी में भगवान के भरोसे छोड़ दिया जाय.

इसी अपराधबोध से बचने के लिए रोज़ नए दुश्मन ढूंढे जा रहे हैं, जो कि कुछ कुढ़मग़ज़ों की हठधर्मिता और मूर्खताओं के कारण मिल भी जा रहे हैं, और आए दिन नए उत्सवों का गृह कार्य दिया जा रहा है.

लॉकडाउन के शुरुआती दिनों में दुर्गा सप्तशती पढ़ रहे और मुझे महाभारत पढ़ने की सलाह देने वाले दोस्त से दोबारा बात करने की हिम्मत नहीं हुई है.

उसने उस दिन मुझे डांट दिया था कि हिंदुस्तान में 20 से ज़्यादा लोग नहीं मरेंगे. तुम बेकार ही परेशान हो रहे हो. यह सब एक विश्वव्यापी साज़िश है जनता को डरा कर आर्थिक मंदी से निपटने के लिए. तुम लोग झूठ-मूठ डरे हुए हो.

एक मित्र जो इन दिनों पाक कला विशेषज्ञ बने हैं, ने कहा कि खाओ, पियो, वर्जिश करो और इम्युनिटी सही करो. कुछ नहीं होगा. और हां चिंता ज़्यादा नहीं करो, क्योंकि चिंता करने से इम्युनिटी कमजोर हो जाएगी. तो सब भूल कर कविता में रमो, एकदम मस्त रहो.

एक बुजुर्ग कवि का भी कुछ दिनों से हाल नहीं लिया, जिन्होंने कहा था- तुम्हें इस समय का उपयोग पढ़ने-लिखने में करना चाहिए. पढ़ने-लिखने का आलम यह है कि पढ़ाई की रफ्तार पहले से चलती- लुढ़कती, अब बिल्कुल एक बिंदु पर सेचुरेट हो गई है.

एक दोस्त ने कहा फिलहाल सब भूल जाओ और खुद को बचाओ. कोरोना के बाद यह दुनिया बदलने वाली है और आगे बदली हुई दुनिया की चुनौतियों के लिए खुद को तैयार करो. कोरोना को छोड़ कर अभी तुम चाह कर भी कुछ सोच नहीं पाओगे. बाकी सारी समस्याएं फिलहाल मिथ्या हैं.

पंखा झूल रहा है. सुबह से ही धूप इतनी तेज निकलती है कि बरबस शिव कुमार बटालवी का लिखा और महेंद्र कपूर का गाया- ‘आज दिन चढ़या तेरे रंग वर्गा’, गुनगुनाने लगता हूं. अभी दोपहर नहीं हुई है. हवा तेज चलने लगी है. दोपहर तक जाते-जाते एकदम हौके की तरह पछया चलने लगती है.

प्रार्थना प्रवचन का कोई पृष्ठ पलटता हूं. विभाजन के बाद की स्थितियों में गांधी की मजबूरी, हताशा और विवशता, हर सफ़हे पर बिखरी पड़ी है. एक-दो पेज पलट कर किताब वहीं रख देता हूं. बेचैनी में बाहर निकल टहलने लगता हूं.

केले के पेड़ सूखने लगे हैं. आम में आए मंजर बहुत हद तक सूख कर गिर गए हैं. सामने वाले नीम ने अभी तक पुराने पत्ते गिराकर, नई कलौंजी नही दी है. सब कोरोना-फोरोना इसे चबाकर ही दूर भगा देता.

इन दिनों सुबह-सुबह पक्षियों की कलकाकली कुछ ज़्यादा ही बढ़ गई है. सामान्य दिन रहता तो यह दिल को बहुत सुकून देता. लेकिन जब मन में इतना कुछ चल रहा हो तो कान और दिल का सामंजस्य भी गड़बड़ हो जाता है.

घर में आवाजाही ऐसी कम है कि एक दो दिन में ही मकड़े,  ग्रील-दरवाजों में जाले बुन दे रहे हैं. इतने बड़े घर में अकेले बंद रहने से कमरों में मौजूद छिपकिलिओं से जान-पहचान हो गई है. बिलकुल बचपन की तरह जब घंटो दीवार से टकटकी लगाए उनपर नज़र गड़ाए रहता था.

बगल के हाईवे जो कि खगड़िया, पूर्णिया, सिलीगुड़ी, न जाने कहां-कहां जाती है, पर इक्का-दुक्का रूटीन गाड़ियां ही आ जा रही हैं. अभी भी लोगों से भरे हुए एक आध बस-ट्रक गुजरते हुए दिख जाते हैं.

जो सज्जन पहले घर का काम करने आते थे वह अब भी मना करने के बावजूद आदतन सुबह-शाम आते हैं. मेरा हाल पूछते हैं. मैं चाय बना कर लाता हूं. वह बाहर ही बाहर चाय पी चले जाते हैं. मैं भी जवाब में पूछ देता हूं कोई दिक्कत तो नहीं है.

उन्हें अभी भी दुनिया की भयावहता का कुछ अंदाज नही है. मैं उन्हें डराना भी नहीं चाहता हूं. इसलिए ज्यादा कुछ नहीं बताता सिर्फ सावधान और सुरक्षित रहने को बोलता हूं.

सोते रहना ही एकमात्र काम है. फिर भी हमेशा नींद जैसा लगा रहता है. जैसे कोई कहे कि 11 बजे मुझे कॉल करना तो मुझे पक्का उस समय नींद आ जा रही है. कहीं भी नहीं आने-जाने से दिन और रात का चक्र गड़बड़ हो गया है.

लिखने के लिए बहुत से विचार घुमरते हैं, लेकिन लिखने में बहुत आलस्य लगता है. खाना बनाता हूं. खाने बैठते ही मुंह में कोई स्वाद नहीं आ पाता. बहुत बात करने का मन होता है तब किसी को फोन लगा देता हूं.

फिर, थोड़ी देर में चट कर फोन रख देता हूं. कोरोना से सम्बन्धित सारी जानकारी इक्कट्ठी हो गई है, इतनी कि यदि एमबीबीएस की डिग्री होती या झोलाछाप डॉक्टर ही होता, तो पुर्जा लिखता.

-सुधांशु फिरदौस की फेसबुक वाल से.


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