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किसान स्वराज यात्रा

Kisan Swaraj Yatra

भारत एक कृषि-प्रधान देश है और इसके राजा हैं किसान, जो अपनी धरती-फसल-भविष्य की रक्षा करने के लिए कई वर्षों से संघर्ष कर रहे हैं. ये राजा किसान संकटों का सामना सिर्फ इसलिए कर रहे हैं कि सम्पूर्ण भारत को भारी मात्रा में नुकसान न उठाना पड़े.

जी हां, एक कृषि-प्रधान देश के लिए तीन ‘एफ’ होना बेहद जरूरी है – फ़ूड (भोजन), फार्मर (किसान) और फ्रीडम (स्वतन्त्रता). और बस यही था संदेश ‘किसान स्वराज यात्रा’ का, जो भारत के 20 राज्यों के सैंकड़ों शहरों-गावों-कस्बों की यात्रा करते हुए कृषि के प्राकृतिक और परम्परागत तरीके के प्रति लोगों को सचेत करते हुए 11 दिसंबर को गांधी समाधि स्थल ‘राजघाट’ पर संपन्न हुई. लोगों में खूब चेतना जगी भी. यह यात्रा 2 अक्टूबर को गांधी जयंती के मौके पर गुजरात के साबरमती आश्रम से शुरू हुई थी.

समापन समारोह में देशभर से किसानों के समर्थन में राजघाट पर इकठ्ठा हुए गांधीवादियों ने सभी राजनीतिक दलों को जी भर कर कोसा. उन्होनें सरकार को भारतीय संस्कृति की उपेक्षा करने का भी दोषी ठहराया.

‘किसान स्वराज आंदोलन’ के समापन समारोह में हर राज्य के किसान नेता और गैर-सरकारी संगठनों के प्रतिनिधियों ने भी हिस्सा लिया. ठण्ड में हजारों की संख्या में गरीब और मजबूर किसान भी मौजूद रहे.

महात्मा गांधी की पोती और गांधी स्मृति एवं दर्शन समिति की उपाध्यक्ष तारा गांधी भट्टाचार्य ने धीमे स्वर में ही उत्साही विचार रखे. उन्होनें कहा कि इस मौके पर बापू की कमी खल रही है. “बापू एक नेता नहीं थे. वह एक कार्यकर्ता थे. उनकी वेशभूषा भी एक किसान की ही थी. जरूरत है उनके बताये रास्तों पर चल कर सरकार किसानों के लिए ठोस नीतियां बनाये ताकि वह आत्महत्या करने के बजाये सम्पन्न बनें.”

कम्युनिस्ट धरों के नेताओं ने भी किसान आंदोलन की बात कही. समाजसेवी और चिंतक के. एन. गोविन्दाचार्य ने सरकार को आड़े हाथों लेते हुए कहा कि वह भारत को अमेरिका बनाने का सपना देख रही है. “मुझे डर है कि अमरीका बनते-बनते भारत कहीं अफ्रीका न बन जाए.” उन्होनें कहा, “देश में एक अजीब खेल चल रहा है जिसमें सरकार और विपक्ष की दोनों टीमों के ग्यारह-ग्यारह खिलाड़ी मिलकर बाईस जनों की टीम बनाकर स्वतः ही देश पर गोल पर गोल दागे जा रहे है. अब मजबूर किसान जनता इन गोलों से कैसे बचें?”

खेती-किसान-खाद्यान पर आज़ादी के बाद से ही राजनीति चल रही है. बारम्बार किसानों के श्रम और तकनीकी कौशल का अवमूल्यन हुआ है. सालों साल उनका गौरव चूर किया गया है. अब वक्त है कि किसानों को खैरातों का मुरीद न बनने दिया जाए. किसानों के बच्चों को स्कूल में मिड-डे मील के नाम पर अब कटोरा लेकर खड़ा न होना पड़े. शायद इस यात्रा से किसानों को लामबंद करने की कोशिश कामयाब हो.


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