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सर्फ़ वाली ललिता जी याद हैं न?

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ब्रिटिश कंपनी यूनिलीवर ने पाकिस्तान में अपना डिटर्जेंट सर्फ़ उतारा, 1948 में. कंपनी को वहां ठीक-ठाक रिसपॉन्स तो मिला लेकिन कंपनी की महत्वाकांक्षी योजना के लिए केवल पाकिस्तान के बाजार से बात बनती नहीं दिख रही थी.

तो 1959 में सर्फ़ भारत के बाजार में कूदा. धीरे-धीरे पांव पसारने की कोशिश शुरू की. सर्फ़ का बाज़ार अभी कुछ जमना शुरू ही हुआ था कि 1969 में देसी डिटर्जेंट निरमा ने धमाकेदार एंट्री कर दी.

निरमा का यूएसपी (USP) यानी यूनिक सेल्स प्रपोजिशन था उसका सस्ता होना. इस अनूठे सेल्स टैक्टिस से लोगों को सस्ते में ही अच्छा डिटर्जेंट मिलने लगा.

क्या हुआ जब निरमा बनाम सर्फ़ ने बांटा समाज

जी. जल्द ही निरमा आम लोगों का, और सर्फ़ खास लोगों का डिटर्जेंट कहा जाने लगा. लेकिन, 70 के दशक में भारत में ख़ास लोगों का वाशिंग पाउडर बनके क्या खाक बनती सर्फ़ की!

देखा गया कि सर्फ़ की बाजार में हिस्सेदारी लगातार घटने लगी. वहीं निरमा की लोकप्रियता चढ़ती जाती थी.

सर्फ़ के कर्ता-धर्ताओं ने सर्फ़ की नैया पार लगाने की जिम्मेदारी भारत के ब्रांड मास्टर एलेक पद्मसे के हाथ में सौंपी. इस ऐड मैन से कहा गया कि वह कुछ ऐसा बनाएं कि महंगी कीमत पर भी सर्फ़ को आम लोगों को बेचा जा सके.

कुछ इस तरह बाज़ार में जन्मी ललिता जी

भला महंगे सर्फ़ को कोई कैसे आम बनाए? यह जिम्मेदारी कम और चुनौती ज्यादा थी. इसलिए तो दिग्गज एलेक पद्मसे को चुना गया था कि वह अपनी क्रिएटिविटी दिखाएं.

माज़रा समझकर पद्मसे ने ललिता जी नाम का एक कैरेक्टर गढ़ा – एक आम भारतीय गृहणी जो हर चीज को तोल-मोलकर लेती है, फिजूल का चवन्नी भी नहीं खर्चती लेकिन डिटर्जेंट महंगा वाला सर्फ़ ही लेती है.

संभ्रांत परिवार से आने वाले पद्मसे ने आम आदमी की कहानी को इतने सरल अंदाज में पेश किया कि कई दशकों बाद, आज भी ललिता जी की कहानी भारत की आम कहानी लगती है.

सही पढ़ा आपने. आपकी ब्रांडिंग अगर सही हो तो अधिक कीमत ही आपकी ख़ासियत बन जाती है. और एक बार आप धड़कनों में बस गए तो फिर वर्षों तक धड़कते रहते हैं.

ब्रांडिंग और मार्केटिंग दोनों ही गुर आने चाहिए

बहरहाल, महंगा सर्फ़ फिर तो निरमा को पछाड़कर भारत का न सिर्फ नंबर वन डिटर्जेंट बना बल्कि वह डिटर्जेंट पाउडर का पर्याय ही बन गया.

लोग डिटर्जेंट का मतलब सर्फ़ समझने लगे. जादू ऐसा चढ़ा कि निरमा खरीदने के लिए भी लोग दुकानदारों से निरमा सर्फ़ मांगने लगे.


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छोटे शहरों में आज भी लोग एरियल सर्फ़, रिन सर्फ़ या फेना सर्फ़ मांगते दिख जाएंगे. जबकि रिन, एरियल और फेना ललिता जी के किरदार से जन्मे सर्फ़ के प्रतिद्वंदी हैं.

साहेब, यह होती है ब्रांडिग और ऐसी है ब्रांडिंग की ताकत. ब्रांडिंग और मार्केटिंग को जो समझ ले वह फिर किसी भी ग्राहक की जेब से पैसा वसूल ले.

जो कुछ भी दिखेगा, वही बिकेगा. और उसे लोगों की नज़रों में परोसने के लिए आपको चाहिए होती है इतनी समझदारी कि आप आपने प्रोडक्ट की सही ब्रांडिंग करवाएं. साथ ही मैचिंग-मैचिंग मार्केटिंग करें.

बहुत से लोग समझते हैं कि ब्रांडिंग क्या कर लेगी!

बेशक अगर उत्पाद में दम न हो तो ब्रांडिंग क्या कर लेगी. लेकिन, अगर ब्रांडिंग न हो तो उत्पाद कितना भी दमदार हो, ढेर हो जाएगा.

निरमा इसका उदाहरण है. वह चाहे फिर रेखा-जया-सुषमा सबकी पसंद निरमा के विज्ञापन के साथ ही क्यों न आ जाए – जैसा कि हुआ भी, ललिता जी के सर्फ़ को हर गृहणी के दिल से निकालना मुश्किल हो गया.

एक शानदार कॉम्बिनेशन लोगों के दिल में ऐसा घर कर जाता है कि सचमुच उसे नकारना संभव नहीं. उसके प्रतिद्वंदियों को बाजार में अपना हिस्सा बनाने में सालों लग जाते हैं.

दमदार ब्रांडिंग और भरोसे से एक उत्पाद का बाज़ार बनता है, और जहां यह बन जाता है वहां वह उत्पाद कम-से-कम पांच दशक तक अपने आसपास किसी को फटकने नहीं देता.

बाजार में आधे दाम पर मौजूद प्रतिस्पर्धियों के वावजूद, सर्फ़ की कहानी यही तो है. ब्रांडिंग पर निवेश को फिजूल न समझें क्योंकि जो दिखता है वही बिकता है.

और हां… आप क्या कहते हैं? क्या सर्फ़ की खरीदारी में ही समझदारी है?


भारत बोलेगा: जानकारी भी, समझदारी भी
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