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संगीत तरस रही तानसेन की मज़ार

तानसेन – नाम तो सुना होगा. संगीत का जिक्र हो तो तानसेन हमारे अंदर जाग उठते हैं.

इसी संगीत सूर्य तानसेन के बिना ‍सूना रहता था अकबर दरबार, और आज संगीत को ही तरस रही है उनकी मज़ार.

ग्वालियर में है तानसेन का मकबरा जहां के गलियारों में गूंजती हैं स्वरों की झंकार. लेकिन, साथ ही दीवारें ताकती हैं कि कहीं से आए कोई तो कद्रदान.

तानसेन कोई था, जो आज भी हर तान मे सजता है. वह जो हमेशा रहेगा इस ज़मीन का. वह जो आज भी सुरों का पहला मुकाम है.

इन गलियारों में घूमते हुए ऐसा लगता है मानो हज़ारो राग रागिनियां एक साथ कानों में सुनाई दे रही हों.

संगीत को पवित्र करता कला का अनूठा नमूना लिए, ये विराट खड़ा है. शहर की चहल पहल से एक मोड़ मुड़कर, कुछ कदम चलकर, एक बड़े से बगीचे से होता हुआ, शिल्पकारी का सुंदर उदाहरण है तानसेन का मकबरा.

तानसेन या मियां तानसेन या रामतनु पांडे हिन्दुस्तानी शास्त्रीय संगीत के एक महान ज्ञाता थे जिन्हें सम्राट अकबर के नवरत्नों में गिना जाता था

यूं तो ग्वालियर विरासत का शहर है. यहां कुछ दूरी के दरम्यान कई धरोहर है जिन्हें ये शहर अपने दामन में समेटे है. 

संगीत सम्राट तानसेन की नगरी ग्वालियर के लिए कहावत प्रसिद्ध है कि यहां बच्चे रोते हैं तो सुर में और पत्थर लुढ़कते हैं तो ताल में.

चाहे वो विशाल किला हो या फिर सरोद घर, या सिंधिया की विरासत. इन सब में सबसे ख़ास और इस शहर की भारत के नक़्शे में पहचान कराता सबसे महत्वपूर्ण है सुर सम्राट तानसेन का मकबरा.

150 साल से भी अधिक समय तक तानसेन का मकबरा वाद विवाद और कोर्ट कचहरी के पचड़े में पड़ा रहा

ग्वालियर का नाम सुनते ही सबसे पहले दिमाग में तानसेन की नगरी समझ आती है. तानसेन मतलब संगीत की साधना में लीन साधक, जिन्होंने भारतीय संगीत को सही मायने दिए.

तानसेन ने संगीत को उस समय विशेष मूलता दी जिस दौर में पर्शियन और मध्य एशियाई सुर भरतीय गायन सभ्यता में अपनी जडें जमा रहे थे.

तानसेन का उद्देश्य और लक्ष्य हिंदुस्तानी देशी गायन शैली पर आकर ही रुका था. छह साल की उम्र से जो उन्होंने गायन शुरू किया, तो उनके पहले गुरु बने स्वामी हरिदास जिन्होंने ध्रुपद गायन शैली का भारतीय सभ्यता में उद्गम किया था.

इनसे तानसेन ने भक्ति शैली गायन सीखा, वहीं मोहम्मद गौस से सूफी संगीत में पारंगता ली. मोहम्मद गौस के मकबरे से ही तानसेन के मकबरे की पहचान है.

गुरु शिष्य परंपरा का अनूठा उदाहरण है मोहम्मद गौस और तानसेन का मकबरा, जिसमें इन दोनों गुरु शिष्य की समाधी एक दूसरे के निकट स्थापित है.

हालांकि तानसेन का जन्म ग्वालियर के ही निकट, ग्राम बेहट में हुआ था जहां जाने पर आप देखेंगे एक तरफ झुका हुआ एक छोटा सा मंदिर, जिसके बारे में यहां के पुराने रहवासी एक कहानी सुनाते हैं.

कहते हैं छह साल की उम्र से पहले तानसेन के कंठ के सुर खामोश थे, पर सुरों के इस साधक ने जिस तरह राग दीपक गाकर दीपकों को जलाया, और राग मेघ मल्हार गाते हुए मेघों को बरसने पर मजबूर कर दिया, ठीक उसी तरह अपनी आराधना से भगवान को मनाया.

ईश्वर ने जब उन्हें आवाज़ दी तब वो इस तरह चीखे, जिससे उनकी पुकार सुन कर यह मंदिर एक ओर झुक गया.

कहा जाता है कि तानसेन के जीवन में जंगली पशुओं को मंत्र- मुग्ध करने तथा रोगियों को ठीक करने की अनेक संगीत-प्रधान चमत्कारी घटनाएं हुई

यह निर्विवाद सत्य है कि गुरु-कृपा से उन्हें बहुत-सी राग-रागिनियां सिद्ध थीं. और उस समय देश में तानसेन जैसा दूसरा कोई संगीतज्ञ नहीं था.

तानसेन ने व्यक्तिगत रूप से कई रागों की रचना की

वह आवाज़ जिसने एक मंदिर को झुका दिया, उसने आगे चलकर हिंदुस्तानी शास्त्रीय संगीत को दरबारी कानड़ा या कान्हड़ा, रागेश्वरी, मियां की तोड़ी जैसे कई राग दिए.

तानसेन के मकबरे, या यूं  कहें कि मोहम्मद गौस के मकबरे का निर्माण 16 वीं शताब्दी में बादशाह अकबर के शासन के दौरान हुआ. इसलिए इसके वास्तु शिल्प में मुग़लिया कलाकारी की झलक बखूबी देखने को मिलती है.

ठीक मांडू स्थित जामी मस्जिद और होशंगशाह मकबरे की तरह जालीदार झरोखे और नक़्क़ाशी, बलुआ पत्थर से बड़ी नफासत से तराशी कलाकारी है जो मन को बड़ा सुकून देती है.

ये भी बड़ी अजीब बात है कि जिस इमली को खाकर अक्सर गला ख़राब हो सकता है, वहीं इस परिसर में इमली का एक पेड़ ऐसा भी है जिसकी पत्तियां खाकर बड़े-बड़े धुरंधरों ने तानसेन सभा में हाज़िरी दी है.

ये पेड़ भी यहां तब से हैं जबसे ये मकबरा यहां स्थिर है.

बहरहाल, मौसम भले ही बदलते रहें, हवाओं का रुख भले ही मुड़ता रहे, मगर कुछ जगहों की सुंदरता, मौलिकता और मिठास हमेशा स्थिर रहती है. क्योंकि वो अमर हैं, सुरों में, क़िस्सों में, कहानियों में और अपने लोगों के बीच में.

हां, पर उन अपनों से उसे अपनेपन और प्यार की दरकार है, क्योंकि यही वो लोग हैं जिनकी ज़िम्मेदारी है इन धरोहरों को सहेजकर रखने की, ये लोग हम सब हैं. 

आने वाले कल के मासूम हाथ कभी ऊंगली पकड़े वहां से गुज़रें तो वो बोल उठें, यही है तानसेन की स्थली, तानसेन की नगरी. वो थी, वो  है और हमेशा रहेगी जो हम उसके साथ हैं.


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